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विश्वज्योति महावीर राक्षस आदि के नाम पर देवता प्रतिष्ठित थे । आर्त मानव उन यक्षों, भूतों, राक्षसों एवं देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार की पूजा रचाते फिरते थे । यज्ञ होते थे, बलियाँ दी जाती थी, मालाएँ जपी जाती थी और यात्राएँ की जाती थी । और तो क्या, शान्तिकर्म के नाम पर मनुष्यों तक का अग्नि में होम कर दिया जाता था । ___मानव में ऐश्वर्य प्राप्ति का दिग्भ्रम भी कुछ कम नहीं था । मनुष्य अपने स्वयं के पुरुषार्थ को भूलकर देवों से ऐश्वर्य की भिक्षा माँगता फिरता था । धन चाहिए तो लक्ष्मी से माँगो । कुबेर से माँगो । राज्यशासन चाहिए तो इन्द्र का आशीर्वाद लो, ब्रह्मा या विष्णु को मनाओ । बुद्धि चाहिए तो सरस्वती को प्रसन्न करो, गणेश को खुश करो । पुत्र चाहिए तो इस देव की उपासना करो, उस देव का वरदान लो । रोग निवृत्ति के लिए, शत्रु संहार के लिए मान प्रतिष्ठा के लिए सब एकमात्र सब कुछ देव ही देव ! मनुष्य स्वयं कुछ नहीं . यह था अपने प्रति हीनभाव ! मनुष्य एक तरह से देवताओं के हाथ का खिलौना बन गया था । .. मैं दीन हूं ! मैं हीन हूँ ! मैं क्षुद्र हुँ ! मैं तुच्छ हूँ ! मैं कुछ नहीं कर सकता ! जो कुछ करेंगे, देवता ही करेंगे ! वे सर्व शक्तिमान हैं, वे महान् हैं !
और मैं ! मैं कुछ नहीं ! कुछ भी नहीं ! इस प्रकार रुदन से भरे निराश एवं हताश जनजीवन में महावीर की दिव्य ध्वनि गूंज उठी - .. मनुष्य, तू क्षुद्र नहीं है, दीन-हीन नहीं है । तू तो अनन्त शक्ति का पुंज है, दिव्यशक्ति का अक्षय स्रोत है । तू क्या नहीं है ? तू सब कुछ है । तू क्या नहीं कर सकता? तू सब कुछ कर सकता है । तू सोया हुआ है, इसीलिए परेशान है, हैरान है । तू जगा नहीं कि सब कुछ जग जाएगा -मति, कृति और शक्ति का कण कण जग जाएगा । कर्म ही तेरा असली देवता है, जो कुछ पाना है अपने स्वयं के कृत कर्म से पाना है । मानव जीवन में दूसरों से लेने-जैसा कुछ नहीं है, जो भी है स्वयं करनेजैसा है । लेने-देने से कुछ नहीं होता, जो होता है, करने से होता है। .. महावीर के कर्मवाद का सन्देश सोते मानव को जगाने के लिए था, अपने स्वयं के पुरषार्थ के बल पर अपने भविष्य का निर्माण करने के लिए था ।
मानव चेतना, जो ईश्वरवाद एवं देववाद के शिकंजे में जकड़ी हुई थी,
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