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________________ साधना के अग्निपथ पर 13 I महावीर सहजतया प्राप्त अपने वैयक्तिक सुखोपभोगों की धारा में ही बह गए हों और लोकमंगल जैसा कुछ भी न कर पाये हों । प्राचीन कथाकारों की, खासकर श्रमण कथाकारों की रुचि कुछ भिन्न रही है । वे प्रथम सांसारिक सुख समृद्धि की, तत्पश्चात् तप-त्याग की और कुछ इधर-उधर के दैवी चमत्कारों की बातों को ही अधिक महात्त्व देते हैं, उन्हीं की लम्बी चौड़ी कहानियाँ लिखते है, भले ही वे विश्वास की सीमा से कुछ दूर क्यों न चली जाएँ । उनकी दृष्टि थी कि महावीर राजकुमार थे, अतः उन्होंने अपने देश और समाज के लिए ऐसा जो कुछ भी किया, यह उनका अपना कर्त्तव्य था उसका भला क्या लिखना, क्या जिक्र ! हाँ, तो तीस वर्ष तक के इतने दीर्घ समय तक, तरुणाई के उद्दीप्त दिनों में, उस महान् साधक ने क्या किया, हमारे लिए अभी कुछ कहना कठिन है । किन्तु जीवन के पूर्ण मध्याह्न में, सुख-सुविधा एवं ऐश्वर्य से उच्छल मदमाती तरुणाई में गृहत्याग, हर किसी प्रबुद्ध विचारक को महावीर की तत्कालीन मानसिक स्थिति की एक परिकल्पना अवश्य दे देता है, जिससे आँख बचाकर यों ही बगल काटते हम आगे चल नहीं सकते हैं । एक तरूण को जो कुछ चाहिए, वह सब उपलब्ध है, स्वर्ण सिंहासन है, राजप्रासाद है, सुन्दर स्नेहशील पत्नी है । अपने प्राणों से भी कहीं अधिक प्यार करने वाले बन्धु हैं, ऐश्वर्य है, सुख है, जयजयकार है, और है पूर्ण स्वस्थ तथा सशक्त तन और मन ! फिर क्या बात है, जो भरी तरुणाई में वह सब कुछ छोड़कर चल पड़ता है, अकेला ही, भयाकुल सूने वनों की ओर, गहन गिरिगुहाओं एवं गगन भेदते गिरि शिखरों की ओर ! गृहत्याग की प्रेरणा ! मानव के व्यक्तिगत जीवन में, आस-पास के लोक जीवन में तन की व्याधि, मन की आधि, जन्म, जरा, मरण, आकस्मिक दुःख और संघर्ष इतने प्रबल तथ्य हैं कि कोई भी जागृत मास्तिष्क इन सब बातों पर कुछ सोचे बिना रह नहीं सकता । अनेक बार इनसे मुक्ति पाने के लिए सरल मार्ग खोज लिए जाते हैं, प्रतीकार के मन चाहे साधन जुटा लिए जाते हैं, और कुछ क्षणों के लिए मानव इस भूलभुलैया में अपने को भुला भी देता है, किन्तु ये सब प्रयत्न और प्राप्य कितने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001336
Book TitleVishwajyoti Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2002
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Sermon
File Size5 MB
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