Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 93
________________ 84 २०. सव्वं जगं तु समायाणुपेही, है । पियमप्पियं कस्स वि नो करेजा । - सूत्रकृतांग १।१० ६ समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी से राग करता है। और न किसी से द्वेष । अर्थात् समदर्शी अपने-पराये की भेद-बुद्धि से परे होता २१. आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं । -सूत्रकृतांग १।१२।१ ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही मोक्ष प्राप्त होता है । २२. णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । अगिला धम्ममाइक्खेज्जा, विश्वज्योति महावीर कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा । - सूत्रकृतांग २।१।१५ खाने पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए । साधक बिना किसी भौतिक इच्छा के प्रशांतभाव से एक मात्र कर्म - निर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे । २३. सारदसलिल इव सुद्ध हियया..... विहग इव विप्पमुक्का.... वसुंधरा इव सव्वफासविसहा । - सूत्रकृतांग २ । २ । ३८ मुनिजनों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख - दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं । २४. असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवति । - स्थानांग ८ जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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