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२०. सव्वं जगं तु समायाणुपेही,
है ।
पियमप्पियं कस्स वि नो करेजा ।
- सूत्रकृतांग १।१० ६
समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी से राग करता है। और न किसी से द्वेष । अर्थात् समदर्शी अपने-पराये की भेद-बुद्धि से परे होता
२१. आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं । -सूत्रकृतांग १।१२।१ ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
२२. णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । अगिला धम्ममाइक्खेज्जा,
विश्वज्योति महावीर
कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा । - सूत्रकृतांग २।१।१५
खाने पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए । साधक बिना किसी भौतिक इच्छा के प्रशांतभाव से एक मात्र कर्म - निर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे ।
२३. सारदसलिल इव सुद्ध हियया..... विहग इव विप्पमुक्का....
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा ।
- सूत्रकृतांग २ । २ । ३८
मुनिजनों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख - दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं ।
२४. असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवति ।
- स्थानांग ८
जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए ।
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