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महावीर के अमर उपदेश १४. बुज्झिज्जत्ति तिउटिज्जा, बंधणं परिजाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।१।१
सर्वप्रथम बन्धन को समझो, और समझ कर फिर उसे तोड़ो | १५. अप्पणोय परं नालं, कुतोअन्नाणुसासिउं । -सूत्रकृतांग १।१।२।१७
जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है ?
१६. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं ।
अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।४।१७
___ ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । • अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है बस, इतनी बात सदैव ध्यान में
रखनी चाहिए। १७. संबुज्झह, किं न बुज्झह ?
संबोही खलु पेच दुल्लहा । णो हूवणमंति राइयो,
नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ -सूत्रकृतांग १.२।१।१ समझो ! अभी इसी जीवन में समझो । क्यों नहीं समझ रहे हो? मरने के बाद परलोक में संबोधि का मिलना कठिन है ।
जैसे बीती हुई रातें फिर लौटकर नहीं आतीं, उसी प्रकार गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता ।
१८.
सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ।
-सूत्रकृतांग ११२।२।११ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है ।
१९. जहा कुम्मे सअंगाइ सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे। -सूत्रकृतांग १८ ।१६
कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म-योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे ।
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