Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 92
________________ 83 महावीर के अमर उपदेश १४. बुज्झिज्जत्ति तिउटिज्जा, बंधणं परिजाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।१।१ सर्वप्रथम बन्धन को समझो, और समझ कर फिर उसे तोड़ो | १५. अप्पणोय परं नालं, कुतोअन्नाणुसासिउं । -सूत्रकृतांग १।१।२।१७ जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है ? १६. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं । अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियाणिया । -सूत्रकृतांग १।१।४।१७ ___ ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । • अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है बस, इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। १७. संबुज्झह, किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच दुल्लहा । णो हूवणमंति राइयो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ -सूत्रकृतांग १.२।१।१ समझो ! अभी इसी जीवन में समझो । क्यों नहीं समझ रहे हो? मरने के बाद परलोक में संबोधि का मिलना कठिन है । जैसे बीती हुई रातें फिर लौटकर नहीं आतीं, उसी प्रकार गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता । १८. सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए । -सूत्रकृतांग ११२।२।११ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है । १९. जहा कुम्मे सअंगाइ सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे। -सूत्रकृतांग १८ ।१६ कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म-योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98