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९.
१०
बहुपि लधुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा ।
अधिक मिलने पर संग्रह न करो । परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखो ।
११. बन्धप्पमोक्खो अज्झत्थेव ।
गुरु
से 'कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे ।
नेव से अंतो व दूरे ।
- आचारांग १।५।१
जिसकी कामनाएँ तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है, और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है ।
परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है, और न शाश्वत सुख से दूर ।
१२. तुमंस नाम तं चैव जं हंतव्वं ति मन्नसि । तुमंस नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ।
विश्वज्योति महावीर
- आचारांगा १।२।५.
वस्तुतः बन्धन और मोक्ष अन्दर में आत्मा में ही हैं ।
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- आचारांग १।५।२.
तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि । - आचारांग १।५।५.
जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है ।
जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है ।
जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है, ।
(स्वरूप दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है ।)
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१३. जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया ।
वियाण से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए । - आचारांग १।५।५. आत्मा है, वह विज्ञाता जाननेवाला है । जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है ।
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