Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 94
________________ महावीर के अमर उपदेश 85 -स्थानांग ८ २५. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए । २६. अहिंसा तस-थावर-सव्वभूयखेमंकरी । -प्रश्नव्याकरण २।१ अहिंसा, त्रस और स्थावर (चर-अचर) सब प्रणियों को कुशल क्षेम करने वाली है। २७. सव्वे पाणा न हीलियव्वा, न निंदियव्वा । -प्रश्न० २।१. विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए, और न निन्दा । २८. न कया वि मणेण पावएणं पावगं किंचिवि झायव्वं । वईए पावियाए पावगं न किंचिवि भासियव्वं । -प्रश्न० ३।१ मन से कभी भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। वचन से कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिए । २९. जे य कंते पिऐ भोए, लद्धे वि पिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई || -दशवैकालिक २।३ . जो मनोरम और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है-त्याग देता है, वस्तुतः वही त्यागी है ।। ३०. दिह्र मियं असंदिद्धं पडिपुन्नं विअंजियं । अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं । -दशवैकालकि ८।४ ___आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटी-छटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे । किन्तु यह ध्यान में रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो। ३१. जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे । वुज्झइसे अविणीयप्पा, कट्ठ सोयगयंजहा । -दशवैकालिक ९।२।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98