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विश्वशांति के तीन सूत्र
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अनेकांतवाद और स्याद्वाद भगवान् महावीर की यह चिंतन शैली अपेक्षावादी, अनेकांतवादी शैली थी, और उनकी कथनशैली स्याद्वाद या विभज्यवाद' के नाम से प्रचलित हुई । अनेकांत वस्तु में अनन्त धर्म की तत्वदृष्टि रखता है, अतः वह वस्तुपरक होता है, और स्याद्वाद अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप का अपेक्षाप्रधानं वर्णन है, अतः वह शब्दपरक होता है । जन साधारण इतना सूक्ष्म भेद लेकर नहीं चलता, अतः वह दोनों को पर्यायवाची मान लेता है । वैसे दोनों में ही अनेकांत का स्वर है।
जन सुलभ भाषा में एक उदाहरण के द्वारा महावीर के अनेकांत एवं स्याद्वाद का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है -आप जब एक कच्चे आम को देखते हैं, तो सहसा कह उठते हैं -आम हरा है, उसको चखते हैं तो कहते हैं -आम खट्टा है । इस कथन में आम में रहे हुए अन्य गंध, स्पर्श आदि वर्तमान गुण धर्मों की, तथा भविष्य में परिवर्तित होनेवाले पीत एवं माधुर्य आदि परिणमन-पर्यायों की सहज उपेक्षा-सी हो गई है । निषेध नहीं, उन्हें गौणकर दिया गया है । और वर्तमान में जिस वर्ण एवं रस का विशिष्ट अनुभव हो रहा है, उसी की अपेक्षा से आम को हरा और खट्टा कहा गया है । आम के सम्बन्ध में यह कथन सत्य कथन है, क्योंकि उसमें अनेकांत मूलक स्वर है । किन्तु यदि कोई कहे कि आम हरा ही है, खट्टा ही है, तो यह एकान्त आग्रहवादी कथन होगा । ही के प्रयोग में वर्तमान एवं भविष्य कालीन अन्य गुण धर्मों का सर्वथा निषेध है, इतर सत्य का सर्वथा अपलाप है, एक ही प्रतिभासित आंशिक सत्य का आग्रह है । और जहाँ इस तरह का आग्रह होता है वहाँ आंशिक सत्य भी सत्य न रहकर असत्य का चोला पहन लेता है । इसलिए महावीर ने प्रतिभासित सत्य को स्वीकृति देकर भी, अन्य सत्यांशों को लक्ष्य में रखते हुए आग्रह का नहीं, अनाग्रह का उदार दृष्टिकोण ही दिया ।
लोक जीवन के व्यवहार क्षेत्र में भी हम ही का प्रयोग करके नहीं, किंतु भी का प्रयोग करके ही अधिक सफल और संतुलित रह सकते हैं । १. विभजवायं च वियागरेज्जा । -सूत्र ० १।१४।२२
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