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विश्वशांति के तीन सूत्र
है अतः हमें दोनों सत्यों के प्रति जागरूक रहना है व्यक्त सत्य को स्वीकार करना है, साथ ही अव्यक्त सत्य को भी । हाँ, देश, काल, व्यक्ति एवं स्थिति के अनुसार उसकी कथाचित् गौणता, सामयिक उपेक्षा की जा सकती है, किन्तु सर्वथा निषेध नहीं ।
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भगवान महावीर का यह दार्शनिक चिंतन, सिर्फ दर्शन और धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, किंतु संपूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला चिंतन है । इसी अनेकांतदर्शन के आधार पर हम गरीबों को, दुर्बलों को और अलपसंख्यकों को न्याय दे सकते हैं, उनके अस्तित्व को स्वीकार कर उन्हें भी विकसित होने का अवसर दे सकते हैं । आज विभिन्न वर्गों में, राष्ट्र-जाति-धर्मों में जो विग्रह, कलह एवं संघर्ष हैं, उसका मूल कारण भी एक दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक आग्रह एवं हठ है । अनेकान्त ही इन सबमें समन्वय स्थापित कर सकता है । अनेकान्त संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है, बनाता है । और यह विशालता, उदारता ही परस्पर के सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल प्राण है ।
उदार
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अनेकांतवाद वस्तुतः मानव का जीवन-धर्म है, समग्र मानव जाति का जीवन-दर्शन है । आज के युग में इसकी और भी आवश्यकता है । समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकांत के बिना चल ही नहीं सकेगा । उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती होगी, जब हमारा चिंतन अनेकांतवादी होगा | भगवान महावीर के व्यापक चिंतन की यह समन्वयात्मक देन धार्मिक सामाजिक जगत में, बाह्य और अन्तर् जीवन में सदा सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है । अस्तु, हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्व - जनमंगल की धुरी भी कह सकते हैं ।
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