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विश्वशांति के तीन सूत्र
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को हिंसा स्वीकार करके भी उसे निश्चय में हिंसा की परिधि से मुक्त माना । क्योंकि उन्होंने अहिंसा की मौलिक तत्त्व दृष्टि से बाहर में दृश्यमान प्राणिवध
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नहीं, किंतु रागद्वेषात्मक अन्तर्वृत्ति को, प्रमत्तयोग को ही हिंसा बताया, कर्मबन्धन का हेतु कहा, यही उनका अहिंसा के क्षेत्र में अनेकांतवादी चिंतन
था ।
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परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में भी महावीर बहुत उदार और स्पष्ट थे । यद्यपि जहां परिग्रह की गणना की गई, वहां वस्त्रपात्र, भोजन, भवन आदि बाह्य वस्तुओं को, यहां तक कि शरीर को भी परिग्रह की परिगणना में लिया गया, किन्तु जहां परिग्रह का तात्विक प्रश्न आया, वहां उन्होंने मूर्च्छा भाव के रूप में परिग्रह की एक स्वतंत्र एवं व्यापक व्याख्या की । महावीर वस्तुवादी नहीं, भाववादी थे, अतः उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त बाह्य जड़ वस्तुवाद में कैसे उलझ जाता ? उन्होंने स्पष्ट घोषणा की वस्तु परिग्रह नहीं, भाव ही ( ममता ) परिग्रह है । मन की मूर्च्छा, ३ आसक्ति और रागात्मक विकल्प-यही परिग्रह है, बन्धन है ।
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इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिंतन के हर नये मोड़ पर महावीर 'हाँ-और-ना' के साथ चले । उनका उत्तर अस्ति नास्ति के साथ अपेक्षापूर्वक होता था । एकान्त अस्ति या एकांत नास्ति-जैसा निरपेक्ष कुछ भी उनके तत्त्व दर्शन में न था ।
अपने शिष्यों से महावीर ने स्पष्ट कहा था . सत्य अनन्त है, विराट है । कोई भी अल्पज्ञानी सत्य को सम्पूर्ण रूप से जान नहीं सकता । जो जानता है वह उसका केवल एक पहलू होता है, एक अंश होता है । सर्वज्ञ सर्वदर्शी, जो सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है, वह भी उस ज्ञात सत्य को वाणी द्वारा पूर्णरूप से अविकल व्यक्त नहीं कर सकता।" इस स्थिति में सत्य को संपूर्ण रूप से जानने का, और समग्र रूप से कथन करने का दावा कौन कर सकता है ? हम जो कुछ देखते हैं, वह एक पक्षीय होता है । और जो कुछ कथन करते हैं वह भी एक पक्षीय ही है, वस्तुसत्य के सम्पूर्ण स्वरूप को
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२. पमायं कम्मंमाहंसु । - सूत्रकृतांग १।८।३ ३. मुच्छा परिग्गाहो। - दशवैकालिक
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