Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ विश्वशांति के तीन सूत्र 73 महावीर दान को संविभाग कहते थे। संविभाग-अर्थात् सम्यक्-उंचित, विभाजन-बँटवारा । और इसके लिए भगवान् का गुरु गंभीर घोष था कि संविभागी को ही मोक्ष है, असंविभागी को नहीं - असंविभागी न हु तस्स मोक्खो । वैचारिक अपरिग्रह भगवान महावीर ने परिग्रह के मूल मानव-मन की बहुत गहराई में देखें। उनकी दृष्टि में मानवमन की वैचारिक अहंता एवं आसक्ति की हर प्रतिबद्धता परिग्रह है । जातीय श्रेष्ठता, भाषागत पवित्रता, स्त्री पुरषों का शरीराश्रित अच्छा बुरापन, परम्पाराओं का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह बताया और उससे मुक्त होने की प्रेरणा दी । महावीर ने स्पष्ट कहा कि विश्व की मानव जाति एक है । उसमें राष्ट्र, समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी कोई चीज नहीं। कोई भी भाषा शाश्वत एवं पवित्र नहीं है । स्त्री और पुरुष आत्मदृष्टि से एक हैं, कोई ऊँचा-नीचा नहीं है । इसी तरह के अन्य सब सामाजिक तथा सांप्रदायिक आदि भेद विकल्पों को महावीर ने औपाधिक बताया, स्वाभाविक नहीं । इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह भाव पर प्रतिष्ठित किया । भगवान महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रुतियाँ आज हमारे समक्ष हैं १. इच्छाओं का नियमन, २. समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन ३. शोषणमुक्त समाज की स्थापना ४. निष्कामबुद्धि से अपने साधनों का जनहित में __'संविभाग-दान । ५. अध्यात्मिक-शुद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98