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विश्वज्योति महावीर परिग्रह का मूल है, ज्योंही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा में आबद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महावीर द्वारा उपदिष्ट भोगोपभोगपरिमाण व्रत में से अपरिग्रह स्वतः फलित हो जाता है ।
महावीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे । इन व्रतों का उद्देस्य भी आस पास के देशों एवं प्रदेशों पर होने वाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एवं अन्य शोषणप्रधान आक्रमणों से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशों की सीमाओं, अपेक्षाओं एवं स्थितियों का योग्य विवेक रखे बिना भोग-वासना पूर्ति के चक्र में इधर उधर अनियंत्रित भाग-दौड़ करना, महावीर के साधना क्षेत्र में निषिद्ध था । आज के शोषणमुक्त समाज की स्थापना के विश्व मंगल उद्घोष में, इसप्रकार महावीर का चिन्तन-स्वर पहले से ही मुखरित होता आ रहा है ।
.. परिग्रह का परिष्कार, दान पहले के संचित परिग्रह की चिकित्सा उसका उचित वितरण है । प्राप्त साधनों का जनहित में विनियोग दान है, जो भारत की विश्व मानव को एक बहुत बड़ी देन है किन्तु स्वामित्व विसर्जन की उक्त दान-प्रक्रिया में कुछ विकृतियां आगईं थीं, अतः महावीर ने चालू दानप्रणाली में भी संशोधन प्रस्तुत किया । महावीर ने देखा, लोग दान तो करते हैं, किंतु दान के साथ उनके मन में आसक्ति एवं अहंकार की भावनाएँ भी पनपती हैं । वे दान का प्रतिफल चाहते हैं - यश, कीर्ति, बड़प्पन, स्वर्ग और देवताओं की प्रसन्नता ! आदमी दान तो देता था, पर वह याचक की विवशता या गरीबी के साथ प्रतिष्ठा और स्वर्ग का सौदा भी कर लेना चाहता था । इस प्रकार का दान समाज में गरीबी । को बढ़ावा देता था, दाताओं के अहंकार को प्रोत्साहित करता था । महावीर ने इस गलत दान-भावना का परिष्कार किया। उन्होंने कहा-किसी को कुछ देना मात्र ही दान-धर्म नहीं है, अपितु निष्कामबुद्धि से, जनहित में संविभाग करना, सहोदर बन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना; दान-धर्म है । दाता बिना किसी प्रकार के अहंकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, सहज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे - वही दान वास्तव में दान है । इसीलिए भगवान
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