________________
70
विश्वज्योति महावीर ही वास्तव में परिग्रह है । जो साधक ममत्व से मुक्त हो जाता है, वह सोने चांदी के पहाड़ो पर बैठा हुआ भी अपरिग्रही कहा जा सका है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने परिग्रह की, एकान्त जड़वादी परिभाषा को तोड़कर उसे भाववादी, चैतन्यवादी परिभाषा दी ।
.. अपरिग्रह का मौलिक अर्थ भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का सीधा सादा अर्थ है - निस्पृहता, निरीहता । इच्छा ही सबसे बड़ा बंधन है, दुःख है । जिसने इच्छा का निरोध कर दिया - उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा मुक्ति ही वास्तव में संसारमुक्ति है । इसलिए सबसे प्रथम इच्छाओं पर, आकांक्षाओं पर संयम करने का उपदेश महावीर ने दिया । बहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रबुद्ध होती है कि वे अपनी संपूर्ण इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महाव्रती-संयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढ़ते हैं । किंतु इससे अपरिग्रह केवल संन्यास क्षेत्र की ही साधना मात्र बनकर रह जाता है, अतः सामाजिक क्षेत्र में अपरिग्रह की अवतारणा के लिए उसे गृहस्थधर्म के रूप में भी एक परिभाषा दी गई । महावीर ने कहा सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओं का संपूर्ण निरोध, आसक्ति का समूल विलय-यदि संभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमशः कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओं को सीमित करके ही वह अपरिग्रह का साधक बन सकता है ।
इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक,असीम बनती जाएँगी, और उतनी हो चिंताएँ, कष्ट, अशांति बढ़ती जाएँगी । इच्छाएँ सीमित होंगी, तो चिंता और अशांति भी कम होंगी । इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए महावीर ने इच्छापरिमाणव्रत का उपदेश किया । यह अपरिग्रह का सामाजिक रूप था । बड़े-बड़े धनकुबेर श्रीमंत एवं सम्राट् भी अपनी इच्छाओं को सीमित-नियंत्रित कर मन को शांत एवं प्रसन्न रख सकते हैं । और साधनहीन साधारण लोग भी, जिनके पास सर्वग्राही लंबे चौड़े साधन तो नहीं होते, पर इच्छाएँ असीम दौड़ लगाता रहती हैं, वे भी इच्छापरिमाण के द्वारा समाजोपयोगी उचित आवश्कताओं की पूर्ति करते हुए भी अपने अनियंत्रित इच्छाप्रवाह के सामने अपरिग्रह का एक आन्तरिक अवरोध खड़ा कर उसे रोक सकते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org