Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 75
________________ विश्वज्योति महावीर - समानता पाती है । इसी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था 'एगे आया' आत्मा एक है, एक रूप है, एक समान है । चैतन्य के जाति, कुल, समाज, राष्ट्र, स्त्री, पुरुष आदि के रूप में जितने भी भेद हैं, वे सब आरोपित भेद हैं, बाह्य निमित्तों के द्वारा परिकल्पित किये गए मिथ्या भेद हैं । आत्माओं के अपने मूल स्वरूप में कोई भेद नहीं है । और जब भेद नहीं है तो फिर मानवजाति में यह कलह एवं विग्रह कैसा ? त्रास एवं संघर्ष कैसा ? घृणा एवं वैर कैसा ? यह सब भेदबुद्धि की देन है । और अहिंसा में भेद बुद्धि के लिए कोई स्थान नहीं है । अहिंसा और भेदबुद्धि में न कभी समन्वय हुआ है और न कभी होगा । आज जो विश्व नागरिक की कल्पना कुछ प्रबुद्ध मास्तिष्कों में उड़ान ले रही है, जयजगत् का उद्घोष मुखरित हो रहा है, उसको अहिंसा के द्वारा ही मूर्तरूप मिल सकता है । 66 अहिंसा की प्रक्रिया अहिंसा मानव जाति को हिंसा से मुक्त करती है । वैर, वैमनस्य द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या- डाह, दुःसंकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अभिमान, दम्भ, लोभ, लालच, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाज की ध्वंसमूलक विकृतियाँ हैं, सब हिंसा के ही रूप हैं। मानव मन हिंसा के उक्त विविध प्रहारों से निरन्तर घायल होता आरहा है । मानव उक्त प्रहारों के प्रतिकार के लिए भी कम प्रयत्नशील नहीं रहा है । परन्तु वह प्रतिकार इस लोकोक्ति को ही चरितार्थ करने में लगा रहा कि ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया । बात यह हुई कि मानव ने वैर का प्रतिकार वैर से, दमन का प्रतिकार दमन से करना चाहा, अर्थात् हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करना चाहा, और यह प्रतिकार की पद्धति ऐसी ही थी, जैसी कि आग को आग से बुझाना, रक्त से सने वस्त्र को रक्त से I धोना । वैर से वैर बढ़ता है, घटता नहीं है । घृणा से घृणा बढ़ती है, घटती नहीं है । यह उक्त प्रतिकार ही था, जिसमें से युद्ध का जन्म हुआ, सूली और फाँसी का आविर्भाव हुआ । लाखों ही नहीं, करोड़ों मनुष्य भयंकर से भयंकर उत्पीड़न के शिकार हुए, निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिए गए, परन्तु समस्या ज्यों-की-त्यों सामने खड़ी रही । मानव को कोई भी ठीक समाधान AAJ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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