Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 71
________________ विश्वज्योति महावीर इस प्रकार भगवान् महावीर ने संसार की अन्धेरी गलियों में भटकते मनुष्य को जीवनशुद्धि का दिव्य सन्देश देकर उसे अनंत ज्योतिर्मय ईश्वर के पदपर प्रतिष्ठित किया । महावीर ईश्वर को, जैसा कि कुछ लोग मान रहे थे, शक्ति और शासन का प्रतीक नहीं, अपितु शुद्धि का प्रतीक मानते थे । उनका कहना था कि मानव आत्मा जब पूर्ण शुद्धि की भूमिका पर जा पहुंचती है, तो वह सिद्ध हो जाती है, आत्मा से परमात्मा हो जाती है । इस तरह महावीर ने ईश्वर सत्ता को नकारा नहीं, किन्तु प्राणिमात्र में ईश्वर सत्ता की स्वीकृति दी है और उसे विकसित करने का मार्ग बताया है । 62 मानव-मानव एक समान 1 I भगवान् महावीर की व्यापक दृष्टि में मानव केवल मानव था, और कुछ नहीं । वे मानव जाति को एक अखण्ड समाज के रूप में देखते थे । उनका कहना था कि ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, मानवता की दृष्टि से उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है । सभी मानवों का जन्म एक ही तरह से होता है । सबके शरीर रक्त, मांस, मज्जा और ओज के पिण्ड हैं, मल मूत्र से भरे हैं । अतः जन्म की दृष्टि से न कोई ऊँचा है, न कोई नीचा है । सब मानव एक हैं, एक समान हैं । जन्म से किसी को पवित्र और किसी को अपवित्र मानना, मानवता का अपमान है । विभिन्न जातियों के रूप में मनुष्यों का विभाजन, यदि ऊँच-नीच के आधार पर होता है, तो वह सर्वथा अमानवीय है । इस प्रकार का विभाजन मावसमाज में परस्पर घृणा और वैर को जन्म देता है । मानव जाति के उत्थान और पतन का इतिहास बताते हुए युग-द्रष्टा भगवान महावीर ने कहा था, प्राचीन आदिम युग में, जो अकर्मभूमि युग था, सब मानव एक समान थे । वे केवल मानव नाम से ही सम्बोधित होते थे । उस युग में न को ब्राह्मण था, न क्षत्रिय था, न वैश्य था और न कोई शूद्र ही था । न कोई ऊँचा था और न कोई नीचा था। आगे चलकर जब कर्मभूमियुग का आरम्भ हुआ तो अपने-अपने कर्त्तव्य-कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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