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महावीर का जीवन दर्शन
61 और इस प्रकार चेतना अनन्त प्रज्ञा में परिवर्तित एवं विकसित होकर परमात्मा हो जाती है । चेतना का शुद्ध रूप ही प्रज्ञा है, जिसे दर्शन की भाषा में ज्ञानचेतना कहते हैं । बाहर के किसी प्रभाव को ग्रहण न करना ही अर्थात् राग या द्वेष रूप में प्रभावित न होना ही चेतना का प्रज्ञा हो जाना है, ज्ञानचेतना हो जाना है । यही आध्यात्मिक पवित्रता है, वीतरागता है, जो आत्मचेतना को परमात्मचेतना में रूपान्तरित करती है, जन से जिन और नर से नारायण बना देती है । यह विकासप्रक्रिया क्रमिक है । जितनाजितना प्रज्ञा के द्वारा चेतना का जड़ के साथ चला आया रागात्मक संपर्क टूटता जाता है, जितना-जितना भेदविज्ञान के आधार पर जड़ और चेतना का विभाजन गहरा और गहरा होता जाता है, उतनी-उतनी चेतना में परमात्मस्वरूप की अनुभूति स्पष्ट होती जाती है । अध्यात्म भाव की इस विकासप्रक्रिया को महावीर ने गुणस्थान की संज्ञा दी है । चेतन अज्ञान दशा से मुक्ति पाने और 'स्व' में प्रतिष्ठित होने के लिए जिस प्रकार ऊर्ध्वगति करता है, उसके क्रमिक गतिक्रम या विकास क्रम को ही गुणस्थान कहा गया है । चेतन की शुद्ध-शुद्धतर शुद्धतम भूमिका ही गुणस्थान की आरोहण पद्धति है।
आत्मा से परमात्मा होने की विकासप्रक्रिया के सम्बन्ध में महावीर ने स्पष्ट घोषणा की है कि परमात्मा विश्वप्रकृति का द्रष्टा है, स्रष्टा नहीं । स्रष्टा स्वयं विश्वप्रकृति है । विश्वप्रकृति के दो मूल तत्त्व हैं - जड़ और चेतन । दोनों ही अपने अन्दर में कर्तृत्व की वह शक्ति लिए हैं, जो स्वभाव से विभाव और विभाव से स्वभाव की ओर गतिशील रहती है । पर के निमित्त से होने वाली कर्तृत्व शक्ति विभाव है, और पर के निमित्त से रहित स्वयंसिद्ध सहज कर्तृत्वशक्ति स्वभाव है । जब चेतनातत्त्व पूर्ण शुद्ध होकर परमात्मचेतना का रूप लेता है, तब वह पराश्रितता से मुक्त हो जाता है, पर के कर्तृत्व का विकल्प उसमें नहीं रहता, 'स्व' अपने ही 'स्व' रूप में पूर्णतया समाहित हो जाता है । यह चेतना की विभाव से स्वभाव में पूरी तरह वापस लौट आने की अन्तिम स्थिति है । और यह स्थिति ही वह परमात्म सत्ता है, जो मानव जीवन की सर्वोत्तम शुद्ध चेतना में प्रतिष्ठित है।
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