________________
महावीर का जीवन दर्शन
59 सकता । और वह रहता कहाँ है ? किसी का ईश्वर वैकुण्ठ में रहता है, किसी का ब्रह्मलोक में तो किसी का सातवें आसमान पर रहता है, तो किसी का समग्र विश्व में व्याप्त है।
ईश्वरीय सत्ता की उक्त स्थापना ने मनुष्य को पंगु बना दिया है । उसने मानव में पराश्रित रहने की दुर्बल मनोवृत्ति पैदा की है । देववाद के समान ही ईश्वरवाद भी मानव को भय एवं प्रलोभन के द्वार पर लाकर खड़ा कर देता है । वह ईश्वर से डरता है, फलतः उसके प्रकोप से बचने के लिए वह नाना प्रकार के विचित्र क्रियाकाण्ड करता है । स्तोत्र पढ़ता है, माला जपता है, यज्ञ करता है, मूक पशुओं की बलि देता है । वह समझता है कि इस प्रकार करने से ईश्वर मुझ पर प्रसन्न रहेगा, मेरे सब अपराध क्षमा कर देगा, मुझे किसी प्रकार का दण्ड न देगा । इस तरह ईश्वरीय उपासना मनुष्य को पापाचार से नहीं बचाती, अपितु पापाचार के फल से बच निकलने की दूषित मनोवृत्ति को बढ़ावा देती है । मनुष्य को कर्त्तव्यनिष्ठ नहीं, अपितु खुशामदी बनाती है ।
यही बात प्रलोभन के सम्बन्ध में है । मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यायोचित प्रयत्न करना चाहिए, जो पाना है, उसके लिए अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखना चाहिए । परंतु ईश्वरवाद मनुष्य को इसके विपरीत आलसी, निष्कर्मण्य एवं भिखारी बनाता है । अतएव मानव हर आवश्यकता के लिए ईश्वर से भीख माँगने लगा है । वह समझता है, यदि ईश्वर प्रसन्न हो जाए तो बस कुछ का कुछ हो सकता है । ईश्वर के बिना मेरी भाग्य लिपि को कौन पलट सकता है ? कोई नहीं । और उक्त प्रलोभन से प्रभावित मनोवृत्ति का आखिर यही परिणाम होता है कि जैसे भी हो, ईश्वर को प्रसन्न किया जाय और अपना मतलब साधा जाय !
आत्मा ही, परमात्मा है
भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सन्दर्भ में मानव को एक नयी दृष्टि दी । उन्होंने कहा-मानव ! विश्व में तू ही सर्वोपरि है । यह दीनता और हीनता तेरे स्वयं के अज्ञान का दुष्फल है । जो तू अच्छा-बुरा कुछ भी पाता है, वह तेरा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org