Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 66
________________ 57 महावीर का जीवन दर्शन पुरुषार्थ, पराक्रम और प्रयोग के स्थान पर सिर्फ प्रार्थना, याचना, नियति और परम्परा के घेरे में बंद थी, उसे सहसा एक झटका दिया, महावीर की पुरुषार्थप्रबोधिनी वाणी ने । महावीर का कर्मवाद वास्तव में ईश्वरवाद और देववाद के विरोध में एक सबल मोर्चा था । उन्होंने कहा “जब सब तेरे भीतर है, तो फिर किसी से मांगना क्या ? कर्म कर पुरुषार्थ कर ! जो जैसा बीज बोयेगा, वह वैसा फल भी पायेगा, अवश्य पायेगा । जीवन की खेती में जो सत्कर्म का बीज डालेगा, उसे शुभ, सुन्दर और सुखरूप अच्छा फल मिलेगा । और जो दुष्कर्म के बीज बोयेगा - उसे दुःख, यंत्रणा और पीड़ा रूप बुरा फल मिलेगा । देवता हो, या कोई और हो, कृत कर्मों से छुटकारा नहीं, दिला सकता । नैतिकता और सदाचार की मर्यादाएँ जो देववाद के नाम पर शिथिल हो चुकी थीं, महावीर के कर्मवाद से पुनः सुदृढ़ हुईं । समाज में सत्कर्म की प्रेरणाएँ जगीं, भलाई के सुन्दर प्रतिफल और बुराई के दुष्परिणामों से जनता में स्व-कर्म पर विश्वास हुआ । अपना कर्म ही, अपना है, दूसरों के पुण्य से न हमें पुण्य मिलेगा और न दूसरे के पाप से हम पापभागी होंगे - यह है स्व-कर्म-सिद्धान्त, जिसने मानव की पतनोन्मुख नैतिक आस्था को स्थिर किया और उस के आचरण को सदाचार की सीमा में बांधा। इस प्रकार महावीर का दिव्य संदेश श्रवण कर हजारों ही मानव जाग उठे, अपने को पहचान गए, अपने भाग्य का फैसला खुद करना सीख गए और उन्होंने चिरकाल से चली आई कल्पित -देवों की कल्पित दासता के बन्धनों को तोड़ फेंका। आध्यात्मिक श्रेष्ठता ____ महावीर ने कहा-भौतिक ऐश्वर्य कर्मानुसार भोगने के लिए तो हो सकता है, पर, वह महत्त्व और अहंकार के लिए नहीं है । मानवआत्मा का महत्त्व भौतिक उपलब्धि में उतना नहीं, जितना आध्यात्मिक उपलब्धि में है । आध्यात्मिक विकास के समक्ष भौतिक विकास नगण्य है, श्रीहीन है । यह अध्यात्मविकास ही है, जो १. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति || -औपपातिक, समवसरण अधिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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