Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 64
________________ 55 महावीर का जीवन दर्शन की विकृतियों पर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने में सोये हुए दिव्यभाव को जगा लेता है, वह स्वर्ग के देवताओं का भी वन्दनीय देवता हो जाता है । मानव देवों के चरणों में झुकने के लिए नहीं है, अपितु देव ही मानव के चरणों में झुकने के लिए हैं । शर्त है केवल अपने जीवन को परिमार्जित करने की । अहिंसा, संयम और तप की धर्मज्योति जिसके जीवन में प्रज्वलित हो जाती है, उसके लिए स्वर्ग के वैभव भी तुच्छ हैं, देवता भी उसके पवित्र चरणों में श्रद्धानत हैं । १ यह केवल एक आदर्श ही नहीं था, अपितु यथार्थ सत्य था । एक बार ऐसा हुआ कि देवराज इन्द्र ने अपने स्वर्गीय वैभव का मुक्त प्रदर्शन कर भगवान महावीर के भक्त राजा दशार्णभद्र को अपमानित करने की भूमिका रची । दशार्णभद्र असमंजस में पड़ गया । क्या करे, क्या न करे ? तभी भगवान् महावीर ने कहा- .. दशार्ण, क्या सोचते हो ? तुम मनुष्य हो, देवों से भी महान् ? अपनी अन्तःशक्ति को पहिचानो । जो तुम कर सकते हो, वह इन्द्र नहीं कर सकता । भोग से त्याग पराजित नहीं होता, त्याग से ही भोग पराजति होता है ।" अब क्या था, दशार्णभद्र राज्य ऐश्वर्य का त्याग कर मुनि बन गए । उनके जीवन के कण-कण में वैराग्य की ज्योति जल गई । इन्द्र भौतिक ऐश्वर्य के साथ तो स्पर्धा कर सकता था, किन्तु त्याग-मूलक आध्यात्मिक ऐश्वर्य के समक्ष हतप्रभ था । वह भक्तिगद्गद् हृदय से राजर्षि के चरणों में नतमस्तक हो गया । देवराज इन्द्र ने उस समय कहा था - सत्यप्रतिज्ञस्त्वं जातो, निर्जितोऽहं पुरन्दरः । गृहीतुमपि चारित्रं, यन्नाहं त्वमिव क्षमः || . . पुरुषार्थ को जगाओ! महावीर का युग देववाद का युग था । तत्कालीन जन-जीवन भय एवं प्रलोभन से प्रताड़ित था । जिधर देखो उधर ही जनता दुःखों एवं विपत्तियों से त्राण पाने के लिए देवताओं की ओर भागती फिरती थी । हजारों मन्दिर थे, उनमें हजारों ही यक्ष, भूत, १. देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो । -दशवैकालिक. १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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