Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 67
________________ विश्वज्योति महावीर भौतिक दृष्टि से क्षुद्र मानव को देवताओं का भी देवता बना देता है । भगवान् महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि मनुष्य ही संयम की साधना कर सकता है, देवता नहीं । अतएव आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य देवताओं से भी महान् है । मनुष्य ही नहीं, इस दिशा में तो, देवताओं से पशु भी महान् हैं । आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं में देव चतुर्थ भूमिका' तक ही पहुँच पाते हैं, जबकि पशुपंचम भूमिका तक पहुंच सकते हैं । और मनुष्य ? मनुष्य का क्या कहना, वह तो सभी अध्यात्म भूमिकाओं को पार कर चैतन्य से परम चैतन्य की, आत्मा से परमात्मा की - पूर्ण शुद्ध स्थिति तक पहुंच सकता है । मनुष्य के विकास की संभावनाएँ अनन्त हैं, असीम हैं । उनकी इयत्ता नहीं है, सीमा नहीं है । महावीर के दर्शन में ईश्वर भी मानव का सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास ही है, इतर और कुछ नहीं । ईश्वर कौन है, कहाँ है ? मानव जाति ईश्वर के विषय में काफी भ्रान्त रही है । संभव है, अन्य किसी विषय में उतनी भ्रान्त न रही हो, जितनी कि ईश्वर के विषय में रही है ! कुछ धर्मों ने ईश्वर को एक सर्वोपरि प्रभुसत्ता के रूप में माना है । वे कहते हैं : “ईश्वर एक है अनादिकाल से वह सर्वसत्ता संपन्न एक ही चला आ रहा है । दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। नहीं क्या ? दूसरा कोई ईश्वर हो ही नहीं सकता । वह ईश्वर अपनी इच्छा का राजा है । जो चाहता है, वही करता है । वह असंभव को संभव कर सकता है, और संभव को असंभव ! जो हो सकता है, उसे न होने दे, और जो नहीं हो सकता, उसे करके दिखा दे।” जो किसी अन्य रूप में होने जैसा हो, उसे किसी अन्य, सर्वथा विपरीत रूप में कर दे । ऐसा है ईश्वर का तानाशाही व्यक्तित्व, जिसे एक ईश्वरभक्त ने “कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः" कहा है । वह जगत् का निर्माता है, संहर्ता है, एक क्षण में वह विराट् विश्व को बना सकता है, और एक क्षण में उसे नष्ट भी कर सकता है । उसकी लीला का कुछ पार नहीं है । उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल १ चतुर्थ गुणस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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