Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 69
________________ 60 विश्वज्योति महावीर अपना किया हुआ होता है, किसी का दिया हुआ नहीं होता । तू ईश्वर की सृष्टि नहीं हैं, बल्कि ईश्वर ही तेरी सृष्टि है । ईश्वर का अस्तिव है, परन्तु वह मनुष्य से भिन्न कोई परोक्ष सत्ता नहीं है । ईश्वर शासक है और मनुष्य शासित, ऐसा कुछ नहीं है । मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है । ईश्वर कोई एक व्यक्तिविशेष, नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक भूमिका विशेष है, जिसे हर कोई मानव प्राप्त कर सकता है । ईश्वरत्व की स्थिति पाने के लिए न किसी तथा कथित देश का बन्धन है, न किसी जाति, कुल और पन्थ-विशेष का । जो भी मनुष्य आध्यात्मिक विकास की उच्च भूमिका तक पहुंच जाता है, रागद्वेष के विकारों से अपने को मुक्त कर लेता है, स्व में स्व की लीनता प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा हो जाता है । भगवान् महावीर का कहना था कि हर आत्मा शक्तिरूप से तो अब भी ईश्वर है, सदा ही ईश्वर है । आवश्यकता है उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की । हर बिन्दु में सिन्धु छिपा है । सिन्धु का क्षुद्र रूप बिन्दु है, बिन्दु का विराट् रूप सिन्धु है । मानवीय चेतना जब क्षुद्र रहती है, राग-द्वेष के बन्धन में बद्ध रहती है, तब वह एक साधारण संसारी प्राणी की अशुद्ध औपाधिक चेतना है । परन्तु जब चेतना विकृति-शून्य होती है, आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहुंचती है, तो वह परम शुद्ध चेतना बन जाती है, परमात्मा हो जाती है । परमात्मा मूलतः और कुछ नहीं है, सदा-सदा के लिए चेतना का शुद्ध हो जाना ही परमात्मा होना है । आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया संसार-भूमिका पर खड़ी बद्ध-चेतना अन्दर में दुर्बलताओं का शिकार होती है, अतः वह अन्तर्मन के सागर में तरंगायित होने वाले विकृति रूप विकल्पों के आदेशों का पालन करती है, उनके निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करती है । तन और मन की कुछ सुविधाओं को पाकर वह सन्तुष्ट हो जाती है । परन्तु चेतना के सूक्ष्म अन्तःस्तर पर जब परिवर्तन होता है, जब उसमें अधोमुखता से ऊर्ध्वमुखता आती है, तब जीवन के समग्र तोष-रोष अर्थात् राग-द्वेष समाप्त हो जाते है, आत्मानन्द की शाश्वत धारा प्रवाहित हो जाती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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