Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 61
________________ 52 विश्वज्योति महावीर हाथ फैला कर समुद्र का परिमाण बताता है कि समुद्र इतना बड़ा है, वैसे ही भक्त भी अपनी क्षुद्र बुद्धि के द्वारा अनन्त प्रज्ञान-सागर का आकलन करता है, भगवान के अनन्त गुणों की महिमा का गान करता है । सदा से ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा । सागर की व्याख्या बूंद के द्वारा जब होती है, तब यही तो स्थिति उत्पन्न होती है । हम भी इसी स्थिति में से गुजर रहे हैं, इतना समझ कर ही आगे बढ़ना अच्छा रहेगा। अनन्त आनन्द ! अनन्त बोध ! महावीर अपने युग के एक महान् साधक थे । वे जन्म से सिद्ध होकर नहीं आए थे, अपितु अपनी साधना से सिद्ध हुए थे । प्राचीन धर्मग्रन्थों में साधना पथ पर अंकित उनके चरणचिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं । महावीर की उपलब्धि सचमुच ही महान् उपलब्धि थी, स्वयं के द्वारा अर्जित थी । वह न किसी के आशीर्वाद से उन्हें मिली थी और न किसी के द्वारा भिक्षा में ही। यही कारण है कि महावीर की उपलब्धि पूर्ण उपलब्धि है, शास्त्र की भाषा में अनन्त उपलब्धि है । दिया-लिया पूर्ण नहीं होता है, अनन्त नहीं होता है । पूर्ण एवं अनन्त जो होता है, वह किया हुआ होता है, शत-प्रतिशत अपना किया हुआ हो । अतएव प्रस्तुत सन्दर्भ में इतना अवश्य जानकर चलिए कि महावीर ने वह प्राप्त कर लिया था, जिसकी प्राप्ति के बाद और कुछ प्राप्तव्य शेष नहीं रहता है । और न अन्य नयी प्राप्ति की कोई अपेक्षा ही रह जाती है । उन्होंने वह जान लिया था, जिसे जान लेने के बाद और कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता । जानना या पाना कुछ भी कहें, वह सब अपने में समग्र था,अनन्त था । समग्र चेतना अखण्ड अनन्त-आनन्द से परिपूर्ण ! अखण्ड अनन्त बोध से परिपूर्ण ! लोककल्याण की सहज अभिव्यक्ति आप देखते हैं जब पुष्प खिलता है, तो उसका सौरभ फैल जाता है । दीप जब जलता है, तो उसकी ज्योति वातावरण को प्रकाश से भर देती है । पुष्प से सौरभ स्वयं फैलता है, फैलाया नहीं जाता । दीपक से प्रकाश स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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