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अन्तर्मुखी साधनापद्धति
49 नहीं । सब स्वार्थी हैं, धूर्त हैं, मोहमाया में फँसाने वले हैं -ऐसा भी कुछ नहीं । यह सब निचले स्तर की दृष्टि है, जिसे भगवान् ने आर्तध्यान कहा है । शुद्ध आत्मबोध एवं विवेक पर आधारित ध्यानसाधना, जो वीतराग भाव को उबुद्ध करती है, उसमें सर्वत्र समत्व की ज्योति झलकती है । यहाँ तक कि संसार
और मोक्ष में भी समरसता आ जाती है । न संसार से द्वेष रहता है, न • मोक्ष से राग । मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः ।।
सच्चा बोध ध्यान को जन्म देता है और सच्चा ध्यान सच्चे बोध को जन्म देता है । इस प्रकार बोध से ध्यान, और ध्यान से बोध की एक धारा चल पड़ती है, जो आगे चलकर चिदानन्द एवं सहजानन्द के अनन्त सागर में समाहित हो जाती है । ध्यान साधना है, शुद्ध चैतन्य सिद्धि है । ध्यान साधना है, शुद्ध आनन्द सिद्धि है | ध्यान जितना गहरा होता जायेगा, उतनी ही गहराई से आनन्द प्राप्त होता जायेगा । भगवान् महावीर की साधना अन्दर में इसी ध्यान के पथ पर गतिशील हुई । बाहर में तप रहा, त्याग रहा, बहुत कुछ रहा, परन्तु अन्दर में एक ध्यान ही था, जो सब कुछ था । बाहर के बन्धन कैसे भी तोड़े जा सकते हैं, किन्तु अन्दर के बन्धन ध्यान ही तोड़ सकता है । ध्यान के द्वारा ही महावीर मुक्त हुए, आनन्दमय और बोधरूप हुए । महावीर के आनन्द और बोध का सूर्य के समान, सूर्य के समान क्या, सूर्यातिशायी वह निर्मल प्रकाश विकीर्ण हुआ, जो हजारों हजार साधकों को अतीत में मार्गदर्शन करता रहा, वर्तमान में मार्गदर्शन कर रहा है और भविष्य में भी मार्गदर्शन करता रहेगा।
___ ध्यान की फलश्रुति में कालान्तर का प्रश्न नहीं है । यह बात नहीं है कि ध्यान अब होता है, उसका परिणाम या फल भविष्य में कहीं दूर होता है ? ध्यान तो तत्काल की साधना है । इधर ध्यान होता है, उधर तत्काल कर्मों की निर्जरा होती है, बन्धन टूटते हैं, आत्मा मुक्त होती है । प्रकाश हुआ नहीं कि अन्धकार समाप्त ! प्रकाश होने पर एक क्षण के लिए भी अन्धकार की स्थिति नहीं रह सकती । सच्चा विकास संपूर्णता में होता है, आंशिकता में नहीं । ध्यान वस्तुतः इसी संपूर्ण विकास का मार्ग है । महावीर का ध्यान संपूर्णता की इसी
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