Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 57
________________ विश्वज्योति महावीर गया, हर क्षण, हर स्थिति में होता गया । महावीर के जीवन में आकुलता के, पीड़ा के, द्वन्द्व के एक-से-एक भीषण प्रसंग आए । किंतु महावीर अनाकुल रहे । निर्द्वन्द्व रहे । कैसे रहे ? ऐसे रहे कि वे ध्यान योगी थे । अतएव वे हर अच्छी-बुरी घटना के तटस्थ दर्शक बनकर रह सकते थे । अपमान- तिरस्कार के कड़वे प्रसंगों में, और सम्मान सत्कार के मधुर क्षणों में उनकी अन्तश्चेतना सम रही, तटस्थ रही, वीतराग रही । वे आने वाली या होने वाली हर स्थिति के केवल द्रष्टा रहे, न कर्त्ता रहे और न भोक्ता । हम बाहर में उन्हें अवश्य कर्ता भोक्ता देखते हैं । किन्तु देखना तो यह है कि वे अन्दर में क्या थे ? सुख-दुःख का कर्त्ता, भोक्ता विकल्पात्मक स्थिति में होता है । केवल द्रष्टा ही है, जो शुद्ध निर्विकल्पात्मक ज्ञान-चेतना का प्रकाश प्राप्त करता है । 48 - महावीर का यह ध्यानकेन्द्र से सम्बन्धित समत्व दर्शन-उनका अपना स्वयंस्फूर्त सहज दर्शन था । आरोपित या किसी के द्वारा प्रशिक्षित नहीं । उन्होंने किसी गुरु से सुनकर या किसी शास्त्र में पढ़ कर समत्व की यह स्वीकृति अपने उपर आरोपित नहीं की थी कि कोई कुछ भी कहे या करे । मुझे तो मेरे गुरु या शास्त्र का आदेश है कि मैं निन्दा और प्रशंसा में, सुख और दुःख में, हानि और लाभ में सम रहूं, समान भाव से रहूं । इंधर-उधर से उधार लिए, आरोपित ज्ञान से सच्ची समता एवं समानता उद्भासित नहीं होती । भेदातीतता की सहज स्थिति ही अन्दर और बाहर सर्वत्र अभेद का, समत्व का दर्शन करती है । वीतरागता साधना की वह स्थिति है, जहाँ द्वन्द्वात्मक सभी भेद समाप्त हो जाते हैं, फलतः आकुलता, व्याकुलता, उद्विग्नता और व्यग्रता का कहीं कोई अस्तित्व नहीं रहता । एक अखण्ड आनन्द एवं शक्ति की धारा बहने लगती है । और यह सब ध्यान का चमत्कार है, और कुछ नहीं । महावीर का ध्यान शुद्ध आत्मबोध पर आधारित था । उनके ध्यान में आरोपित उद्देश्य, उपेक्षा या उदासीनता जैसी कोई स्थिति नहीं थी । बहुत दुःख है, बड़ा कष्ट है, क्या करूँ, इससे मुक्त कैसे होऊँ- ऐसा कुछ नहीं । सुख मिले तो कितना अच्छा हो, जल्दी से जल्दी मुक्ति मिले तो दुःख से छुटकारा हो - ऐसा भी कुछ नहीं । संसार बड़ा खराब है, यहाँ कोई किसी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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