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अन्तर्मुखी साधनापद्धति सकती है ? ध्यान का अर्थ है अपने को देखना, अन्तर्मुख होकर तटस्थभाव से अपनी स्थिति का सही निरीक्षण करना । सुख-दुःख की, मान-अपमान की, हानि-लाभ की, जीवन-मरण की जो भी शुभाशुभ घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें केवल देखिए । रागद्वेष से परे होकर तटस्थभाव से देखिए । केवल देखना भर है, देखने के सिवा और कुछ नहीं करना है । बस, यही ध्यान है । शुभाशुभ का तटस्थ दर्शन, शुद्ध स्व का तटस्थ निरीक्षण ! चेतना का बाहर से अन्दर में प्रवेश ! अन्दर में लीनता !
__ महावीर की साधना ध्यान की साधना थी । इतिहास में महावीर के तप की बहुत बड़ी प्रसिद्धि है । उनके कठोर एवं दीर्घ तपश्चरण का काफी विस्तार से वर्णन है । परन्तु यदि कोई गहरी नजर डालकर अन्तर में देखे तो उसे उक्त तप में भी ध्यान ही परिलक्षित होगा । उनका तप ध्यान के लिए था । यही बात है कि जहाँ कहीं ऐसा वर्णन आता है, वहाँ लिखा मिलता है कि - भगवान् ध्यान में लीन रहे । सर्वप्रथम स्थान-शरीर की स्थिरता, फिर मौन वाणी की स्थिरता, और फिर ध्यान-अन्तर्मन की स्थिरता । आज भी हम कायोत्सर्ग की स्थिति में ध्यान करते समय यही कहते हैं । ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामिः | महावीर के ध्यान का यही क्रम था, और , इस प्रकार तप करते-करते महावीर का ध्यान हो जाता था । अथवा यों कहिए कि ध्यान करते-करते अन्तर्लीन होते-होते तप हो जाता था । और, यदि स्पष्टता के साथ वस्तुस्थिति का विश्लेषण किया जाए तो ध्यान स्वयं तप है । स्वयं भगवान् की भाषा में अनशन आदि तप बाह्य तप हैं । इनका सम्बन्ध शरीर से अधिक है । शरीर की भूख-प्यास आदि को पहले निमन्त्रण देना और फिर उसे सहना, यह बाह्य तप की प्रक्रिया है । और ध्यान अन्तरंग तप है, अन्तरंग अर्थात् अन्दर का तप, मन का तप, भाव का तप, स्व का स्व में उतरना, स्व का स्व में लीन होना । महावीर की यह आत्माभिमुख ध्यान साधना धीरे-धीरे सहज होती गई, अर्थात् अन्तर्लीनता बढ़ती गई । विकल्प कम होते गए, चंचलता उद्विग्नता कम होती गई और इस प्रकार धीरे-धीरे निर्विकल्पता, उदासीनता, अनाकुलाता, वीतरागता विकसित होती गई । ध्यान सहज होता
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