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साधना के अग्निपथ पर है । एकांत शांत प्रदेश में लक्ष्य केन्द्रित होना आसान है । अच्छे-बुरे वातारण का प्रभाव मन पर प्रायः पड़ता ही है । अतः सामान्य साधक सत्य की खोज में एकान्त का आश्रय लेते हैं । महावीर ने भी यही पथ अपनाया और उसमें वे सफल भी हुए । किन्तु, यह एकान्त वातावरण स्वरूपोपलब्धि की एकाग्रता का अनिवार्य अंग नहीं है । कभी-कभी असावधान साधक एकान्तता के आग्रह में भटक भी जाते हैं । और कभी-कभी घर में रह कर ही सब कुछ पाने का आग्रह रखने वाले साधक भी कुछ नहीं प्राप्त कर पाते । असली बात अपने मन की तैयारी की है । दोनों ही स्थितियाँ विभिन्न परिस्थितियों में एक ही सत्य को प्रकट करती है । यही कारण है कि इतिहास के पृष्ठों पर दोनों ही प्रकार के उदाहरण उपलब्ध हैं।
एक बात और है जो साधक के लिए विचारचर्चा का विषय बन जाती है, महावीर के सम्बन्ध में भी यह चर्चा उठती है । घर क्यों छोड़ा जाए ? परिवार के दायित्वों से अपने को अलग क्यों किया जाए ? यह प्रश्न है जो घर छोड़नेवाले साधकों को लेकर जब तब किया जाता रहा है । कुछ अधिक उद्धत व्यक्ति तो ऐसे साधकों को भगोड़ों की संज्ञा भी देने लगते हैं । किन्तु ऐसा सोचना या कहना क्या सही है ? क्या महावीर भी अपने प्राप्त दायित्वों से पिंड छुड़ाने वाले भगोड़े ही थे? क्या बुद्ध भी इसी कोटि के थे - गैर जिम्मेदार ? जवाबदेही से भाग खड़े होने वाले ? नहीं, ऐसी बात नहीं है । परिवार का, पति-पत्नी और बाल-बच्चों का दायित्व, अमुक सीमा तक एक महत्व रखता है । किन्तु कभी-कभी जीवन में वे महत्त्वपूर्ण प्रसंग भी आते हैं, जबकि दायित्वों की ये क्षुद्रसीमाएँ अपने आप टूट जाती है, क्या राष्ट्ररक्षा के लिए युद्ध के मोर्चे पर जूझ मरने वाला वीर युवक या अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध संघर्षरत प्राणों का बलिदानी तरुण भगोड़ा कहा जा सकता है ? परिवार का, प्राणप्रिया पत्नी
और अबोध बाल-बच्चों का मोह त्याग कर किसी और बड़े आदर्श के लिए संघर्ष का विकट पथ अपनाना, प्राप्त सुख-सुविधाओं को ठुकरा कर कठोर एवं लोमहर्षक आफतों को सहना, भगोड़ापन नहीं है, किन्तु वीरता है, बलिदानी भावना है ।
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