Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 35
________________ . 26 विश्वज्योति महावीर एक बार की बात है कि महावीर ऐसे ही एकाकी किसी उजड़े वीरान प्रदेश की ओर मंद मंथर गति से चले जा रहे थे । लोगों ने उन्हें देखा तो रोकाइधर कहाँ जा रहे हैं ? मालूम होता है, तुम्हें इधर का कुछ पता नहीं है । दूर कहीं से आये हो । इधर आगे उजडे प्रदेश में बड़ा ही भयंकर विषधर नाग रहता है । भूल से यदि कोई चला जाता है तो खैर नहीं। कोई उससे बच नहीं सकता | वह दृष्टिविष सर्प है । काटना तो दूर ? बस, उसने क्रुद्ध दृष्टि से जर। देखा नहीं, कि क्षण भर में मृत्यु ! लोग रोकते रहे, किन्तु महावीर रुके नहीं, आगे बढ़ते ही गए । उक्त घटना प्रसंगों पर मनुष्य रुकता है, लौटता है - भय से . और भय उन्हें छू भी नहीं पाया था । और तो क्या, मृत्यु का भय भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता था । प्रश्न है, ऐसा क्यों हुआ ? क्या वे अपनी अहिंसा और करुणा का, अपने अभय और प्रेम का परीक्षण करना चाहते थे ? क्या इस प्रकार जानबूझ कर मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर वे अपने प्राणिमात्र के प्रति मैत्री के दिव्य सिद्धान्त का विषधर पर प्रयोग करना चाहते थे? क्या रागद्वेष आदि की अपनी आन्तरिक वृत्तियों का विश्लेषण करना चाहते थे कि वे क्या हैं, कैसी हैं, किस स्थिति में हैं ? दब गई या क्षीण ही हो गई हैं ? उभरती हैं या नहीं उभरती हैं ? विकार के हेतु होने पर भी विकार न आए, यही तो साधना की सफलता है । आग से दूर रहकर न जला तो क्या चमत्कार हुआ? चमत्कार तो तब है, जब दावानल में छलांग लगा दे, किन्तु जलन का अनुभव तक न हो । निश्चित रूप से यही कुछ रहा होगा, महावीर के अन्तर्मन में । हाँ, तो महावीर चण्डकौशिक सर्प के बिल पर जाकर खड़े हो गए । किसी अहं या हठ से नहीं ! मैत्री और करुणा की धारा उनके अन्तर में बह रही थी । वे देख लेना चाहते के कि धारा का वेग कैसा है, कितना है ? सर्प बिल से बाहर आया । भीषण फुकार ! चरणों में देश पर दंश ! सर्प तन और मन दोनों ही से विष उगल रहा था । और महावीर ? महावीर विष के बदले अमृत बरसा रहे थे । कोई वैर नहीं, कोई प्रतिशोध नहीं । पूर्ण अभयमुद्रा ! विशुद्ध मैत्री ! विशुद्ध करुणा ! महावीर ने चण्डकौशिक को क्रोध न करने की हितशिक्षा दी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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