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दिव्यसाधक जीवन
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कोई वस्त्र । एकदिन एक याचक आया तो उस वस्त्र का भी आधा भाग उन्होने उसे दे दिया - चलो, आधा ही काम देता रहेगा । महावीर का करुणा से द्रवित संवेदनशील हृदय किसी दीन की भावना को कैसे ठुकरा सकता था ? वस्त्रदान से महावीर के मन में न तो अपनी कोई आवश्यकता - सम्बन्धी ग्लानि हुई
और न यही ग्लानि हुई कि संयमी भिक्षु को अपनी चीज किसी अन्य असंयमी गृहस्थ आदि को नहीं देनी चाहिए, किन्तु मैंने दे दी, क्यों दे दी ? वस्त्रखण्ड देते समय भी वे निर्विकल्प थे और बाद में भी । उनका चिन्तन सर्वात्मना स्वतन्त्र चिन्तन था। उनके निर्णय अन्तर की अनुभूति से होते थे, श्रुतिपरंपरा के शास्त्रीय विधिनिषेधों से नहीं । उनकी आवाज अन्तर की आवाज थी, जो सत्य के अधिक निकट होती थी । आगे चलकर वह आधा वस्त्र भी हवा के झोंके से उड़कर बगल के झाड़ में उलझ जाता है और वह अर्धवस्त्रग्राही याचक उसे भी उठा लेता है । महावीर ने इस पर कुछ कहा नहीं, वस्त्र माँगा नहीं । माँगना तो दरकिनार, फिर वस्त्र चाहा ही नहीं । तब से अचेल हो गए, सर्वथा निर्वस्त्र अर्थात् नग्न । यह साधना की निःस्पृहता का, अनासक्ति का वह दिव्य रूप है, जो भविष्य के लिए उदाहरण बन गया । सच्चा साधक हाँ और ना के फेर में नहीं पड़ता । है तब भी खुशी । नहीं है, तब भी खुशी । इसका या उसका बन्धन क्या ? मिला, तब ठीक । न मिला, तब भी ठीक । पास में कुछ रहा, तब ठीक पास में कुछ न रहा, तब भी ठीक ।
विष अमृत बन गया महावीर साधनापथ पर अकेले चल रहे थे । कोई संगी-साथी नहीं । एकाकीपन और वह भी अनजानी सूनी राहों पर ! बड़े-से-बड़े साहसी के साहस को भी तोड़ देता है ऐसा एकाकीपन ! मानव के लिए तो सचमुच ही एकान्त और एकाकीपन कारावास से भी कहीं अधिक घुटन की स्थिति रखता है । किन्तु महावीर असाधारण थे । उन्हें यह एकान्त निर्जनता या अकेलापन कभी भी खलता नहीं था, अपितु वे उस स्थिति में निर्द्वन्द्वता की एक विलक्षण आनन्दानुभूति करते थे।
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