Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 46
________________ अन्तर्मुखी साधनापद्धति I थी, तो उसने अपने साथ परिचर्या के लिए एक सेवक भी नहीं रखा और न संरक्षण के लिए कोई शस्त्र ही । न अध्ययन के लिए कोई शास्त्र रखा और न पूजा अर्चना के लिए कोई चमत्कारी साधन ही । प्रव्रजित होते समय एक वस्त्र था, बाद में वह भी नहीं रखा । महावीर का यह पूर्ण अपरिग्रही रूप था, जो चरित्र ग्रन्थों में काफी विस्तार से वर्णित है । किन्तु, यहां हम कुछ और चर्चा करेंगे, जिसका हमने ऊपर संकेत किया है । महावीर का साधनामार्ग पूर्णतः स्वतंत्र था । तत्कालीन साधना पद्धतियाँ, जिनका समाज में यत्र तत्र प्रचलन था, महावीर को मान्य नहीं थीं । उनकी साधनापद्धति स्वनिर्धारित अन्तर्मुखी साधनापद्धति थी । हर पहले दिन की अनुभूति और उपलब्धि दूसरे दिन के मार्ग को प्रशस्त करती थी । अतः उनके इस दीर्घ साधनाकाल को किसी एक ही विशिष्ट पद्धति का नहीं कहा जा सकता । बाहर में उनकी साधनापद्धति काफी बदलती रही है, जिसके साक्ष्य चरित्र ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध हैं । यही कारण है कि आज की आचार संहिता के साथ उनके बहुत से क्रियाकलाप ठीक तरह से मेल नहीं खाते हैं, हालांकि कुछ लोगों द्वारा मेल बिठाने के अब भी असफल प्रयास किये जा रहे हैं । 37 साधना का मूल प्राणः वीतरागता महावीर की साधना का बाह्याकार गौण है, क्योंकि वह शाश्वत नहीं है, स्वयं उनकी भाषा में वह साधना की मूल धारा नहीं है । उनकी साधना का मूल प्राण, जो साधनाकालीन घटनाओं से परिलक्षित होता है, साधनोत्तर जीवन में दिये गए उपदेशों से भी प्रकट होता है, वह है वीतरागभाव । वीतरागभाव, अर्थात् राग से परे, द्वेष से परे, तटस्थ भावमध्यस्थ भाव- समभाव ।' यही वीतराग भाव महावीर की वास्तविक साधनापद्धति है और यही संपूर्ण वीतरागता उनकी साधना की सिद्धि है । हाँ, वीतरागभाव की सिद्धि के लिए परिकररूप में कुछ और भी किया या कहा मिलता है, परन्तु वह और, सर्वथा और नहीं है । यदि गहराई से निरीक्षण १. समो य जो तेसु स वीयरागो । उत्तराध्ययन ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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