Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 48
________________ अन्तर्मुखी साधनापद्धति 39 भाव को बहिर्मुख से अन्तर्मुख किया, उनके भाव ने विभाव से स्वभाव का रूप लिया और वे बन्धन से मुक्त हो गए । विभाव बन्धन है, स्वभाव मुक्ति है । राग द्वेष क्या हैं ? विकल्प ही तो हैं । विकल्प है तो राग द्वेष हैं, विकल्प नहीं हैं तो राग द्वेष नहीं हैं । बन्धन द्विष्ठ होता है, दो में होता है। एक के हटने पर दूसरा स्वयं हट जाता है । आत्मा स्वयं अपने को विकल्प से हटाती है, और दूसरी ओर विकल्पमूलक राग-द्वेष स्वयं हट जाते हैं । हट क्या जाते हैं, उनका अस्तित्व ही निरवशेष हो जाता है । समता के समक्ष विषमता का क्या अस्तित्व ? दिन के समक्ष रात्रि की क्या सत्ता ? निश्चय दृष्टि से देखें तो आत्मा पर बन्धन या आवरण है ही कहाँ ? अनन्त चैतन्य पर कोई आवरण नहीं, कोई बन्धन नहीं । ये सब आवरण और बन्धन आरोपित हैं । आरोपित अर्थात् अज्ञानता के कारण बन्धन की बन्धन के रूप में स्वीकृति ही बन्धन है । और बन्धन की अस्वीकृति ही मुक्ति है । महावीर ने अनादि काल के स्वीकृत बन्धन को अस्वीकृत कर दिया और वे बन्धन से मुक्त हो गए, वीतराग हो गए । बन्धन की अस्वीकृति का अमोघ साधन ध्यान है । ध्यान का अर्थ है अपने अन्दर के प्रसुप्त प्राय देवत्व को जगाने की एक आन्तरिक प्रक्रिया, विस्मृत स्व की स्मृति को उद्बोधित करने की एक आध्यात्मिक कला । परत, परत और परत हमारे जीवन की समष्टि एक अति जटिल सघनता का, भीड़भाड़ का रूप लिए हुए है । सर्वाधिक स्थूल यह दृश्य शरीर है, फिर इन्द्रियां हैं, मन है और मन की विकृतियाँ हैं । अनेक परतों के नीचे दबे जलस्त्रोत की तरह ही इन परतों के नीचे चेतना का विशुद्ध अस्तित्व दबा पड़ा है । शरीर बहुत ऊपर की परत है । इन्द्रियाँ उसके नीचे की परत हैं और मन की परत इन सब परतों के नीचे है । शरीर क्या है ? अस्थि है, मांस है, मज्जा है, मल है, मूत्र है, मिट्टी है, पानी है, आदि आदि । इन्द्रियाँ शरीर से सूक्ष्म हैं। रूप, रस, गन्ध आदि भौतिक स्थितियों की अनुभूति तक ही इनकी गति है । सबसे जटिल मन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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