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विश्वज्योति महावीर
ओर ! आध्यात्मिक ऊर्ध्वगमन ।
____ महावीर का साधनाकाल विलक्षण घटनाओं से भरा है । एक से एक अद्भुत घटना, परिबोध देने वाली घटना । ऐसी घटना, जैसे सघन अन्धकार में काले बादलों के बीच एकाएक बिजली कौंध जाती हो ! धरती और आकाश को सहसा उद्भासित कर जाती हो! साधकों के लिए महावीर की जीवनघटनाएँ ऐसी ही सुख-दुख के अँधियारे में प्रकाश देने वाली हैं, तमसाच्छन्न-जीवन पथ को आलोकित करने वाली हैं ।
साधना का केन्द्र
जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ अपना सब कुछ होम कर देने वाले महान् साधकों को भी होती हैं । भूख होती है, प्यास होती है । इन्हें कब तक दबाया जा सकता है ? अन्न और जल मानव जीवन की आधार शिला है, इनकी प्राप्ति के लिए यथावसर उचित प्रयत्न करना ही होता है । इस सम्बन्ध में नहीं का कुछ अर्थ नहीं है । साधना का अर्थ जीवन को नकारना, मरण को स्वीकारना नहीं हैं । साधना का अर्थ है - जीवन और मरण दोनों को सँवारना, सुधारना और ज्योतिर्मय बनाना । यह ठीक है कि स्व के प्रति समर्पित आत्मा शरीर के प्रति उपेक्षित हो जाती है, पर इसका यह अभिप्राय तो नहीं कि साधना शरीर को दण्ड देना है, जान-बूझकर व्यर्थ ही उसे तोड़ना है । साधना का ध्येय शरीर को मिटाना नहीं, अपितु उसे नियंत्रित करना है । शरीर साधना का शत्रु नहीं है, जो उसे मारा जाए । शरीर तो साधना का सहयोगी है, सहायक है । उसके साथ यह विवेकहीन उत्पीड़न का व्यवहार साधना नहीं, साधना की विडम्बना है । साधना का केन्द्र शरीर नहीं, आत्मा है । शरीर, इन्द्रिय और मन को साधने के ढंग से साधो ! आत्मा को निर्मल बनाओ, बस साधना हो गई।
यह ठीक है कि साधक शरीर का गुलाम नहीं होता, जो दिन-रात उसीकी सुख-सुविधा में बेभान बना रहे, अन्य किसी महात्वपूर्ण काम का न
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