Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 37
________________ विश्वज्योति महावीर काम से निपट कर गोपालक आया, किन्तु इधर पशु चरते-चरते कहीं दूर : निकल गए थे । गोपालक ने पूछा, पर महावीर मौन । पूछने पर उत्तर न मिले, तो साधारण मनुष्य का मन सहज ही अकल्पित की कल्पना करने लगता है । गोपालक ने सोचा- यह साधु नहीं, अवश्य ही साधुवेश में कोई चोर है । उसने आव देखा न ताव, महावीर को निर्दयता से मारने लगा । किन्तु महावीर चुप: 'और शान्त ! जैसे कुछ हो ही न रहा हो ! बोल सकते थे, समझा सकते थे । समाधनाकाल में वे अन्यत्र बोले भी हैं । किन्तु यहाँ क्यों नहीं बोले ? मालूम होता है - वे अपने अन्दर को परख रहे थे कि इस स्थिति में वे कितने और कहाँ तक शान्त रह सकते हैं ? 1 गोपालक का गालियां देना और मारना पीटना चालू था । उसकी जबान और हाथ काफी तेज होते जा रहे थे। इसी बीच देवराज इन्द्र आ जाते हैं। वह गोपालक को महावीर के सम्बन्ध में साझा देते हैं, और अन्त में चरणों में श्रद्धावनत होकर महावीर से प्रार्थना करते हैं भगवन् ! मैं यहीं आपकी सेवा में रहूंगा । अबोध लोग आपको व्यर्थ ही इतना भीषण कष्ट देते हैं । जिससे मेरा रोम-रोम काँप उठता हैं । मैं सेवा में रह कर अबोध लोगों को समझाता रहूंगा, ताकि आपको कुछ कष्ट न हो, आपकी साधना निर्विघ्न, चलती रहे। किन्तु महावीर इस पर क्या कहते हैं ? महावीर कहते है - देवराज ! यह नहीं हो सकता । साधना सविघ्न हो या निर्विघ्न, मेरे लिए इसका कुछ महत्त्व नहीं है। मुझे किसी की कोई सहायता नहीं चाहिए। मुझे जो पाना है, अपने श्रम से पाना है । साधक को परमपद अपने स्वयं के बल पर मिलता है, दूसरों के बल पर नहीं, किसी की सहायता के भरोसे पर नहीं ।" और महावीर की यह दिव्य ध्वनि तब से लगातार ध्यवित होती आ रही है स्ववीर्येणैव गच्छन्ति, जिनेन्द्राः परमं पदम् ।" महावीर की उक्त दिव्य ध्वनि का सार " 28 हैं. • अपना श्रम, अपनी श्री । - Jain Education International " - भोक्ता नहीं, द्रष्टा क्रुद्ध एक बार ऐसी ही एक और घटना घटित हो गई थी एक ग्वाले ने होकर महावीर के कानों में काठ की शलाका (कील) खोंस दी थी, इसलिए कि For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org

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