Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 38
________________ दिव्यसाधक जीवन 29 " तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते ? क्या तुम सुनते नहीं ? ये कान हैं या कुछ और ?" कानों में कील ! कितनी उग्र पीड़ा हो सकती है ? सुनने भर से मन सिहर उठता है। परन्तु महावीर मौन ! वाणी से भी, मन से भी । उनके मानस सर में पीड़ा की एक बहुत बड़ी चट्टान टूट कर आ गिरी थी । दूसरा कोई होता, तो बहुत बड़ा धमाका होता, सब कुछ उथल-पुथल हो जाता । किन्तु महावीर के मन में कोई लहर नहीं । न प्रतिशोध की, न वैर की, न घृणा की और न अन्य किसी दुर्विकल्प की । तितिक्षा की चरम सीमा ! क्षमा की परम आभा । ऐसा नहीं कि उन्हें दुःखानुभूति न हुई हो, चेतना सर्वथा अनुभूतिशून्य हो गई हो! शरीर आखिर शरीर है, वह वज्र का भी हो, तब भी क्या ? शरीर में उठती हुई वेदना अनुभूति को स्पर्श करती ही है, किन्तु महावीर, वेदना का स्पर्श क्या, वेदना का प्राणप्रकंपक बहुत बड़ा धक्का खाकर भी विचलित नहीं हुए । इसलिए कि उन्होंने अनुभूति को बहुत जल्दी उचित मोड़ देने की एक अद्भुत कला प्राप्त कर ली थी । उनका अध्यात्म बाहर का नहीं, अन्दर का था । ऐसे प्रसंगों पर वे सहसा बाहर से अन्दर में बहुत गहरे उतर जाते थे और वहाँ सही समाधान पा लेते थे । अध्यात्म की भाषा में महावीर वेदना के भोक्ता नहीं, द्रष्टा हो जाते.थे । भोक्ता कभी कभी विकल्पों में उलझ जाता है, आगे का पथ भूल जाता है । किन्तु द्रष्टा की स्थिति विलक्षण होती है । वह दर्शन की भाषा में भोक्ता अवश्य होता है, किन्तु अध्यात्म की भाषा में भोक्ता नहीं, द्रष्टा होता है । द्रष्टा सुख-दुःख के अच्छे-बुरे विकल्पों मे नहीं फँसता । पहले के । बन्धन तोड़ कर फिर नये बन्धन में नहीं बँधता । हाँ, तो महावीर प्रस्तुत में वेदना को देखते भर रहे । मात्र वेदना पर दृष्टि, इधर-उधर और कुछ नहीं । अतएव उन्होंने गोपालक को कुछ नहीं कहा, वचन से भी नहीं, मन से भी नहीं । संभव है, वेदना के क्षणों में कुछ ठहरे हों, किन्तु जल्दी ही अपनी स्वरूपसिद्धि की शोध में जागृत चेतना के साथ आगे बढ़ गए । पूरब से पश्चिम जैसे लम्बे पथ पर नहीं । नीचे से ऊपर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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