Book Title: Vishwajyoti Mahavira
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 41
________________ 32 विश्वज्योति महावीर वहाँ साथ ही ध्यान का उल्लेख है और उल्लेख है ध्यान के द्वारा अपने को परखने का, अपने स्व को उद्घाटित करने का । इस अर्थ में उनका तप ध्यान के लिए था, शरीर के अन्धउत्पीड़न के लिए नहीं । देहाश्रित बहिरंग तप केवल अन्तरंग तप के सर्वोत्कृष्ट रूप ध्यान की पृष्ठभूमि था, और कुछ नहीं । नगर्व, न ग्लानि भोजन की आवश्यकता होने पर महावीर वन से नगर में जाते और अपनी मर्यादा के अनुसार घरों से भिक्षा ग्रहण करते । समय पर भोजन ग्रहण करना भी उनके लिए अनाकुलता की ही एक साधना थी । कभी-कभी भोजन के सम्बन्ध में, उनके कुछ पूर्व संकल्प भी होते थे, जिन्हें जैन साहित्य में अभिग्रह कहा गया है । अभिग्रह के अनुसार उन्हें आहार न मिलता, तो विना आहार ग्रहण किये ही लौट आते थे । इस प्रकार दिन पर दिन गुजरते जाते, और आहार न मिलता, फिर भी महावीर प्रसन्नचित । मिल गया तो प्राप्ति का कोई गर्व नहीं, और न मिला तो अप्राप्ति की कोई ग्लानि नहीं । दोनो ही स्थितियों में समरस ! साधारण व्यक्तियों को कठिनाइयाँ तोड़ देती हैं, आगे बढ़ने से रोक देती हैं, कभी-कभी तो वापस भी लौटा लाती हैं, परन्तु महावीर कहीं रुके नहीं । उनकी अन्दर की सृजनात्मक ऊर्जा उन्हें हमेशा आगे और आगे ही बढ़ाती रही, विकासोन्मुख करती रही । महावीर सच्चे अर्थों में महावीर थे वर्धमान थे • यथा नाम तथा गुणः | क्षमा के क्षीर सागर अपरिचित अनार्य प्रदेशों में महावीर पहुंचते हैं तो उन्हें अवज्ञा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है । लोग उन पर धूल फेंकते, पत्थर मारते, उन्हें नोच डालने के लिए शिकारी कुत्ते भी छोड़ देते । किन्तु महावीर शान्त रहते, किसी को कुछ भी नहीं कहते । उद्दण्ड विरोधियों के प्रति भी सौहार्द एवं सोजन्य से पूर्ण मधुर भाव था उनका । वाणी में तो क्या, मन में भी कटुता नहीं होती थी उनके । क्षमा के क्षीरसागर ! सागर में बिजलियाँ, उल्काएँ गिरें तो क्या हो? अपने आप शान्त हो जाती हैं, सागर का कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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