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विश्वज्योति महावीर अतीत के विचारों में से शाश्वत सत्य, जो सदा सर्वदा के लिए उपयोगी रहता है, ग्रहण किया जा सकता है, वह ग्रहण करना ही चाहिए ! किन्तु जो सामयिक सत्य तीव्रगति से अतीत की ओर बहते कालप्रवाह में पीछे रह गया है, वर्तमान एवं भविष्य के लिए अनुपयोगी हो गया है, उसे यों ही पल्ले बाँधे फिरना विवेकहीनता का द्योतक है । महावीर भविष्य के दिव्यत्व की ओर मुक्तगति से उड़ने वाले गरुड़ थे, वे अपने चिन्तन की पंखों को अतीत के किसी क्षुद्कालिक सत्य के निर्जीव लूंठ से नहीं बाँध सकते थे। वे उस तीर्थंकरत्व की ओर गतिशील थे, जो भविष्य का द्रष्टा एवं स्रष्टा होता है । अतः वे किसी पूर्व संप्रदाय के नाम पर, गुरु के नाम पर या शास्त्र को नाम पर अतीतजीवी कैसे हो सकते थे? उन्हें किसी के द्वारा दिया गया भिक्षा का बासी सत्य नहीं चाहिए था । उन्हें चाहिए था अपने निज के पुरुषार्थ से साक्षात्कृत ताजा सत्य। किसी को गुरु न बनाकर स्वयं स्वतन्त्र प्रव्रजित होने में, संभवतः यही रहस्य है।
अभय जीवन महावीर की साधना श्रमण साधना थी । स्वयं के श्रम से साध्य की उपलब्धि । भक्तियोग के नाम पर उपहार या भिक्षा में किसी से कुछ पाना, महावीर का जीवनदर्शन नहीं था । - महावीर के कदम सूनी और अनजानी राहों पर दृढ़ता से बढ़ चले । उनके हृदय में सत्य दर्शन के लिए एक तीव्र ज्वाला जल उठी थी, उसी के प्रकाश में महावीर लक्ष्य की ओर बढ़ते चले गए । सर्वथा भयमुक्त जीवन ! न स्वयं किसी से कभी डरे न किसी को कभी डराया । उनकी ध्यानयोग की साधना आत्मानन्द की साधना थी, भय से परे, प्रलोभन से परे, राग से परे, द्वेष से परे । कभी अनन्त नीलगगन के नीचे हिंस्रजन्तुओं से भरे निर्जन वनों में ध्यानस्थ खड़े होते, तो कभी मृत्यु की छाया से आक्रान्त श्मशान भूमि में । कभी गिरि-कन्दराओं में ध्यान लगाते, कभी भीमकाय पर्वतों के गगनचुम्बी ऊँचे शिखरों पर । कभी वीरान मरुभूमि में, तो कभी कलकलछलछल बहती नदियों के एकान्त तटों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में दण्डायमान खड़े हो जाते और
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