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विश्वज्योति महावीर संवेदना ही उनके मुनि जीवन का मुख्य हेतुथा ।
एक प्रश्न - एक प्रश्न शेष है -अनन्त चैतन्य के जागरण के लिए, अनन्त आनंद की उपलब्धि के लिए गृहत्याग क्यों किया जाए ? क्या यह जरूरी है कि साधक को स्वरूपोपलब्धि के लिए जंगलों में जाना ही चाहिए ? क्या घर में रहते हुए अध्यात्म साधना नहीं हो सकती ? आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती ? अन्दर के सुप्त चैतन्य को नहीं जगाया जा सकता ? भरत चक्रवर्ती जैसे तो बिना जंगल में गए ही अध्यात्म की सर्वोच्च सिद्धि पागए थे । महावीर ने ही साधना के लिए क्यों घर छोड़ा? इस सम्बन्ध में संक्षिप ही सही, किन्तु कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है ।
अध्यात्म साधना का केन्द्र आत्मा है । इसका बाहर की हाँ-ना से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । बाहर के अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण, साधनों का भाव अथवा अभाव अपने में न साधक हैं, न बाधक । असली साधकता या बाधकता अन्दर की होती है । आज तक के प्रायःसभी अध्यात्म शास्त्री यही कहते आ रहे हैं - ज्ञान की किरण जब चमकने को होती है तो वह कहीं भी चमक जाती है । उसके लिए यहाँ का या वहाँ का ऐसा कोई बन्धन नहीं होता । एक भरत का ही उदाहरण क्यों, भारतीय वाङ्मय में ऐसे शताधिक उदाहरण मिल सकते हैं । किन्तु इसके विपरीत उदाहरणों की भी कमी नहीं है । अनेकानेक महान् साधकों ने एकान्त निस्तब्ध वातावरण में जाकर भी साधना की है । साधना की दृष्टि से घर की अपेक्षा बाहर का वातावरण अधिक उपयुक्त है । वहाँ अज्ञातता रहती है, अतः प्राप्त सुख-सुविधाओं से साधक मुक्त रहता है और जब इधर-उधर की प्रताड़ना एवं अवमानना होती है तो उसे अपनी समता को, सहनशीलता को, तितिक्षा को परखने का अवसर भी मिलता
सत्य एक नहीं है, दोनों ही सत्य हैं । हर एक साधक की अपनी अपनी स्थिति होती है, अन्दर की भूमिका भिन्न-भिन्न होती है । अतः इस सम्बन्ध में कोई एक नियत मार्ग नहीं है । कुछ साधकों के लिए निर्जन एकांत अच्छा होता
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