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तीन
दिव्य साधकजीवन
चला अकेला,
खुद ही गुरु, खुद ही चेला ! राजकुमार वर्धमान श्रमण हो जाते हैं, भिक्षु बन जाते हैं । प्रश्न है किसके उपदेश से और किसके पास ? उत्तर है - किसी का उपदेश नहीं, किसी के पास नहीं ! बस, अपना ही उपदेश और अपने ही पास । जैनदर्शन की भाषा में वे स्वयंसम्बुद्ध हैं, खुद-ब-खुद जागृत होने वाले । और वैदिकदर्शन की भाषा में स्वयंभू हैं, अपने आप अपने से होनेवाले । महावीर स्वयं अपने निर्माता हैं, स्वयं अपनी निर्मिति हैं, स्वयं अपने कर्ता हैं, स्वयं अपनी कृति हैं । स्वयं अपने शासक हैं, स्वयं अपने शासित हैं । साधना की भाषा में खुद ही अपने आज्ञादाता गुरु हैं और खुद ही आज्ञाकारी चेला हैं । उन्होंने किसी गुरु के पास दीक्षा नहीं ग्रहण की । जैन इतिहासकार कहते हैं - भगवान् महावीर का परिवार जैन परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का अनुयायी था । महावीर सहज ही पार्श्वपरम्परा में दीक्षित हो सकते थे । प्रश्न है, क्यों नहीं हुए.? रहस्य इसका कुछ और भी हो सकता है । परन्तु जहां तक हम समझते हैं - महावीर पहले के किसी साम्प्रदायिक विचाराग्रह में प्रतिबद्ध होना नहीं चाहते थे। चूँकि उनकी दृष्टि में पूर्वपरम्पराओं की उपयोगिता देशकाल
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