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तीर्थकर के गर्भ में आने पर कुमारिका देवियां किस प्रकार उनकी माता की सेवा-टहल करती हैं और कैसेकैसे प्रश्न पूछ कर उनका मनोरंजन और अपने ज्ञान का संवर्धन करती हैं, यह बात पांचवें सर्ग में बड़ी अच्छी रीति से प्रकट की गई है।
छठे सर्ग में त्रिशला देवी के गर्भ-कालिक दशा के वर्णन के साथ ही कवि ने वसन्त ऋतु का ऐसा सुन्दर वर्णन किया है कि जिससे उसके ऋतुराज होने में कोई सन्देह नहीं रहता ।।
सातवें सर्ग में भ. महावीर के जन्माभिषेक के लिए आने वाले देव और इन्द्रादिक का तो सुन्दर वर्णन है ही, कवि ने शची इन्द्राणी के कार्यों का, तथा सुमेरु पर्वत और क्षीर सागर आदि का जो सजीव वर्णन किया है, वह तात्कालिक दृश्यों को आंखों के सम्मुख उपस्थित कर देता है। ____ आठवें सर्ग में महावीर की बाल-लीलाओं और कुमार-क्रीडाओं का वर्णन करते हुए उनके मानस पटल पर उभरने वाले उच्च विचारों का कवि ने बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । इसी सर्ग में महाराज सिद्धार्थ के द्वारा विवाह का प्रस्ताव उपस्थित किये जाने पर जिन सुन्दर और सुदृढ़ युक्तियों के द्वारा भगवान् महावीर ने उसे अस्वीकार किया है, उससे उनकी जन्म-जात लोकोद्धारक मनोवृत्ति का अच्छा परिचय प्राप्त होता है ।
इसमें बतलाया गया है कि संसार के जितने भी बन्धन हैं, वे सब स्त्री के बन्धन से उत्पन्न होते हैं । स्त्री के निमित्त से इन्द्रियां प्रमत्त होती हैं, मनुष्य की आंखें सदा स्त्री के रूप देखने को उत्सुक बनी रहती हैं । उसे प्रसन रखने के लिए वह सदा उबटन, तेल-फुलेलादि से अपने शरीर को सजाता-संवारता रहता है और शरीर-पोषण के लिए बाजीकरण औषधियों का निरन्तर उपयोग करता है । कवि भ. महावीर के मुख से कहलाते हैं कि जो इन्द्रियों का दास है, वह समस्त जगत् का दास है । अतः इन इन्द्रियों को जीत करके ही मनुष्य जगज्जेता बन सकता है ।।
इस प्रकार अपना अभिप्राय प्रकट कर उन्होंने पिता से अपने आजीवन अविवाहित रहने की ही बात नहीं कही, प्रत्युत भविष्य में अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यों की ओर भी संकेत कर दिया । यह सारा वर्णन बड़ा ही हृदयस्पर्शी है ।
विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर देने के पश्चात् भ. महावीर के हृदय में जगज्जनों की तात्कालिक स्थिति को देखकर जो विचार उत्पन्न होते हैं, वे बड़े ही मार्मिक एवं हृदय-द्रावक हैं ।
भगवान् संसार की स्वार्थ-परता को देखकर विचारते हैं-अहो ये संसारी लोग कितने स्वार्थी हैं? वे सोचते हैं कि मैं ही सुखी रहूँ भले ही दूसरा दुःख-कूप में गिरता है, तो गिरे । हमें उससे क्या प्रयोजन है ?
कुछ लोगों की मांस खाने की दुष्प्रवृत्ति को देखकर महावीर विचारते हैं-आज लोग दूसरे के खून से अपनी प्यास बुझाना चाहते हैं और दूसरों का मांस खाकर अपनी भूख शान्त करना चाहते हैं । अहो यह कितनी दयनीय स्थिति है ।
देवी-देवताओं के ऊपर की जाने वाली पशु-बलि को देखकर भगवान् विचारते हैं- 'अहो, जगदम्बा कहलाने वाली माता ही यदि अपने पुत्रों के खून की प्यासी हो जाय, तो समझो कि सूर्य का उदय ही रात्रि में होने लगा ।"
"अहो, यह देवतास्थली जो कि देव-मन्दिरों की पावन भूमि कहलाती है, वह पशु-बलि होने से कसाई-घर बनकर यमस्थली हो रही है ? लोग पशुओं को मारकर और उनके मांस को खा-खाकर अपने पेट को कब्रिस्तान बना रहे हैं।"
इस प्रकार के अनेक दारुण दृश्यों का चित्रण करके कवि ने नवें सर्ग में बड़ा ही कारूणिक, मर्मस्पर्शी एवं उद्बोधक वर्णन किया है ।
जगत् की विकट परिस्थितियों को देखते हुए महावीर की वैराग्य भावनाएं उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं और अन्त में एक दिन वे भरी जवानी में घर बार छोड़कर और वन में जाकर प्रवजित हो जाते हैं और सिंह के समान एकाकी इस भूतल पर विहार करते हुए विचरने लगते हैं । उनके इस छद्मस्थ कालिक विहार के समय की किसी भी परीषह
और उपसर्ग रूप घटना का यद्यपि कवि ने कोई उल्लेख नहीं किया है, तथापि इतना स्पष्ट रूप से कहा है कि "वीर प्रभु के इस तपश्चरण काल में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं, कि जिनकी कथा भी धीर वीर जनों के रोंगटे खड़े कर देती है।" इन परीषहों और उपसर्गों का विगत वार वर्णन दि. और श्वे. ग्रन्थों के आश्रय से आगे किया गया है । इस प्रकार दसवें सर्ग में भ. महावीर की आन्तरिक भावनाओं का बहुत सुन्दर वर्णन कवि ने किया है ।
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