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काव्य शास्त्र में अलङ्कार के दो भेद माने गये हैं - शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार । प्रस्तुत काव्य प्रायः सर्वत्र तुकान्त पदविन्यास होने से अन्त्य अनुप्रासालङ्कार से ओत-प्रोत है । संस्कृत काव्यों में इस प्रकार की तुकान्त रचना वाली बहुत कम कृतियां मिलती हैं । वीरोदय-कार की यह विशेषता उनके द्वारा रचे गये प्रायः सभी काव्यों में पाई जाती हैं । यमक भी यथा स्थान दृष्टिगोचर होता है । अर्थालङ्कार के अनेक भेद-प्रभेद साहित्यदर्पणादि में बतलाये गये है । वीरोदय-कारने श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, वक्रोक्ति, अपहृति, परिसंख्या, मालोपमा, अन्योक्ति, समामोक्ति, अतिशयोक्ति, अतिदेश, समन्वय, रूपक दृष्टान्त, व्याजस्तुति, सन्देह, विराधोभास, भ्रान्तिमदादि अनेक अर्थालङ्कारों के द्वारा अपने काव्य को अलङ्कृत किया है।
इस काव्य के चौथे सर्ग में वर्षा ऋतु, छठे सर्ग में वसन्त ऋत, बारहवें सर्ग में ग्रीष्म ऋतु और इक्कीसवें सर्ग में शरद् ऋतु का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है, जो कि किसी भी प्रसिद्ध महाकाव्य के समकक्ष ही नहीं, बल्कि कुछ स्थलों पर तो उनसे भी श्रेष्ठ है । सर्ग प्रथम और नवम में करुण रस, दशम और एकादश सर्ग में शान्त रस, तथा प्रथम और इक्कीसवें सर्ग में श्रृङ्गार रस दृष्टिगोचर होता है ।।
प्रस्तुत काव्य में उर्दू-फारसी के भी मेवा, मीर, अमीर, नेक, मौका आदि कुछ शब्द दृष्टिगोचर होते हैं । उनमें से कुछ शब्दों की तो टीका में निरुक्ति देकर उन्हें संस्कृत रूप दे दिया गया है और कुछ शब्द अधिक प्रचलित होने के कारण स्वीकार कर लिए गये हैं, इस प्रकार कवि ने संस्कृत भाषा को और भी समृद्ध करने का मार्ग-दर्शन किया है।
प्रारम्भ के छह सर्ग कुछ क्लिष्ट हैं, अतः विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं के सुखावबोधार्थ वीरोदय-कार ने स्वयं ही उनकी संस्कृत टीका भी लिख दी है, जो कि परिशिष्ट के प्रारम्भ में दे दी गई है । टीका में श्लोक-गत श्लेष आदि का अर्थ तो व्यक्त किया ही गया है, साथ ही कहां कौनसा अलङ्कार है, यह भी बता दिया गया है ।
प्रस्तुत रचना का जब विद्वान् लोग तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो उन्हें यह सहज में ही ज्ञात हो जायगा कि इस रचना पर धर्म-शर्माभ्युदय, चन्द्रप्रभ चरित, मुनिसुव्रत काव्य और नैषध काव्य आदि का प्रभाव है । फिर भी वीरोदय की रचना अपना स्वतन्त्र और मौलिक स्थान रखती है ।
इस प्रकार यह वीरोदय एक महाकाव्य तो है ही । पर इसके भीतर जैन इतिहास और पुरातत्त्व का भी दर्शन होता है, अतः इसे इतिहास और पुराण भी कह सकते हैं । धर्म के स्वरूप का वर्णन होने से यह धर्मशास्त्र भी है, तथा स्याद्वाद, सर्वज्ञता और अनेकान्तवाद का वर्णन होने से यह न्याय-शास्त्र भी है । अनेकों शब्दों का संग्रह होने से यह शब्द-कोष भी है।
संक्षेप में कहा जाय तो इस एक काव्य के पढ़ने पर ही भ. महावीर के चरित के साथ ही जैन धर्म और जैन दर्शन का भी परिचय प्राप्त होगा और काव्य-सुधा का पान तो सहज में होगा ही । इसीलिए कवि ने स्वयं ही काव्य को 'त्रिविष्टपं काव्यमुपैम्यहन्तु' कहकर (सर्ग १ श्लो. २३) साक्षात् स्वर्ग माना है ।
वीरोदय काव्य की कुछ विशेषताएं काव्य-साहित्य की दृष्टि से ऊपर इस प्रस्तुत काव्य की महत्ता पर कुछ प्रकाश डाला गया है । यहां उसकी कुछ अन्य विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है, जिससे पाठकगण इसके महत्त्व को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे । प्रथम सर्ग में श्लो. ३० से लेकर ३९ तक काव्य-रचयिता ने भ. महावीर के जन्म होने से पूर्व के भारतवर्ष की धार्मिक और सामाजिक दुर्दशा का जो चित्र अंकित किया है, वह पठनीय है ।
पूर्वकाल में देश, नगर और ग्राम आदिक कैसे होते थे, वहां के मार्ग और बाजार कैसे सजे रहते थे, इसका सुन्दर वर्णन दूसरे सर्ग में किया गया है ।
राजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला देवी के रूप में कवि ने एक आदर्श राजा-रानी का स्वरूप तीसरे सर्ग में बतलाया है ।
चौथे सर्ग में महारानी त्रिशला देवी को दिखे सोलह स्वप्न और उनके फल का बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है, जिससे तीर्थंकर के जन्म की महत्ता चित्त में सहज ही अंकित हो जाती है ।
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