Book Title: Vipak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 12
________________ [11] ........................................................... अठारह प्रकार के दाल-शाकादि व्यंजनों से युक्त औषध मिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन प्रारंभ में अच्छा नहीं लगता, परन्तु उसके बाद जब उसका परिणमन होता है, तब वह . सुरूपपने, सुवर्णपने यावत् सुखपने बारंबार परिणत होता है, वह दुःखपने परिणत नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन्! जीवों के लिए प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोध विवेक (क्रोध का त्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग, प्रारम्भ में कठिन लगता है, किन्तु उसका परिणाम सुखरूप यावत् नो दुःखरूप होता है। इसी प्रकार हे कालोदायिन्! जीवों के कल्याणफल-विपाक संयुक्त कल्याण कर्म होते हैं। - विवेचन - कालोदायी ने पाप पुण्य विषयक प्रश्न भगवान् से पूछे - भगवान् ने फरमाया कि जिस प्रकार सभी तरह से सुसंस्कृत विषमिश्रित भोजन खाते समय तो अच्छा लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब उसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है और यहाँ तक कि प्राणों से हाथ तक धोना पड़ता है। यही बात प्राणातिपातादि पापकर्मों के लिए है। पाप कर्म करते समय तो जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु भोगते समय महा दुःखदायी होते हैं। ___ जबकि औषधियुक्त भोजन करने में बड़ी कठिनाई होती है। उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसका परिणमन बड़ा अच्छा, सुखकारी और हितकारी होता है। इसी प्रकार प्राणातिपातादि पापों से निवृत्ति बड़ी कठिन लगती है, किन्तु उनका परिणाम बड़ा हितकारी और सुखकारी होता है। . इस प्रकार जैन दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव स्वयं जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है, उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्ययन में बतलाया है'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ॥३७॥ ' अर्थात् - आत्मा ही सुखों और दुःखों का करने वाला है और विकर्ता सुख दुःखों को काटने वाला भी आत्मा ही है। सुप्रतिष्ठित श्रेष्ठ मार्ग में चलने वाला आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित दुराचार में प्रवृत्ति करने वाला आत्मा अमित्र शत्रु है। तात्पर्य है कि यह आत्मा स्वयं ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है, अन्य कोई नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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