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जागरण होता है।
आचारांग में इन केंद्रों को संधिस्थल की अभिधा से अभिहित किया है :(i) संधि विवित्ता इह मच्चिएहिं । २।१२७ (ii) संधि लोगस्स जाणिता । ३।५१ (ii) एत्थोवरए तं झोसमाणे अयं संधीति अदक्खु । ५।२० (iv) संधि समुप्पेहमाणस्स एगायतणं रयस्स । ५।३० (v) संधि विदित्ता इह मच्चिगहि । २११२७
भयं खणेत्ति मन्नेसि"-प्रस्तुत प्रसंग में क्षण का एक अर्थ है- वर्तमान क्षण की प्रेक्षा तो दूसरा अर्थ है-संधि स्थलों की प्रेक्षा। चैतन्य केंद्रों की प्रेक्षा से ग्रंथि तंत्र संतुलित होने से भय, आवेश, आवेग की समाप्ति व आनन्द, स्फूर्ति एवं उल्लास की संप्राप्ति होती है। ६. लेश्याध्यान
चेतना की भावधारा को लेश्या कहते हैं। लेश्या का एक अन्य अर्थ है-पोद्गलिक पर्यावरण । लेश्या तंत्र रंगों के आधार पर बनता है। रंग जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। लेश्या, आत्म परिणाम या रंग किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की सूचना देने में समर्थ हैं। बाहर के रंग हमारे आंतरिक जीवन को प्रभावित करते हैं और आंतरिक जीवन में रंगों का प्रभाव हमारे व्यवहार में उभरकर आता है । भीतर के रंगों का प्रभाव बाहर होगा। बाहर का प्रभाव भीतर होता है। प्रत्येक कोशिका के रंग के आधार पर उसके गुणों का अवधारण किया जा सकता है। जीन्स का सारा सिद्धांत इसी की व्याख्या है जो--'जहा अन्तो तहा बाही जहा बाही तहा अन्तो।१२-- इस सूक्त में हजारों वर्ष पहले ही कह दिया गया । ७. भावना
पुनः पुनः चिन्तन से चित्त को भावित करना भावना है। भावना के माध्यम से व्यक्ति चाहे जैसा बन सकता है। अप्रशस्त विचारों का अनुचरण प्रतिपक्षी भावना के द्वारा बदला जा सकता है । आचारांग में प्रतिपक्षी भावना के सूक्त हैं'लोभं अलोभेन दुगुंछमाणे । विगिचकोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं संपेहाए ।" दसवै० में इसी को पुष्ट करने वाली गाथा है-उवसमेण हणे कोहं।
मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। इसके अनेक भेद हैं । एकत्वानुप्रेक्षा- अकेलेपन का अनुभव । आचारांग का यह सूक्त- एगो अहमंसि मे अस्थि कोई ण याहमवि कस्सइ एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणे ।" और अनित्यानुप्रेक्षा-- संयोग की अनित्यता का अनुभव ! से पुर्व पेयं पच्छा पेयं भेउर धम्म विसण धम्म' अधुवं अवितियं असासयं चयावचइय विपरिणाम धम्म पासह एव रुवे ।५ यह अनुभव ही शरीर व पदार्थों के प्रति आसक्ति को दूर करता है तथा अशरण अनुप्रेक्षा---अत्राणता का अनुभव । नालं ते तव ताणाए व सरणाए वा तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा सरणाए वा ।" इसी प्रकार संसार अनुप्रेक्षा। संसार के भव भ्रमण की अनुप्रेक्षा। भगवान् ने शाश्वत चिंतन दिया-से असई उच्चागोए, असई खण्ड २३, अंक १
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