________________
राजपुरुष इत्यत्र पूर्वपदे लक्षणया राजसम्बन्धित्वमवगम्यते ।"
इसी भांति श्रीमद् भवानन्द सिद्धांतवागीश भट्टाचार्य कृत 'कारकचक्र' में कारक की परिभाषा के विषय में कहा गया है
तत्र क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वमिति न सामान्यलक्षणम् ।"
यही बात सारमंजरीकार ने भी कही है
तत्र क्रियानिमित्तत्वं कारकत्वमिति वैयाकरणाः तन्न ।" श्रीजयकृष्ण ने शास्त्रान्तरीय लक्षणों की प्रस्तुतिपूर्वक स्पष्ट रूप से अपने मत को भी रख दिया है जिससे ग्रंथकार के स्वतंत्र चिंतन का सामर्थ्य स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है; यथा - तत्तत्पदबोद्धव्यत्वप्रकारक भगवदिच्छाविषयत्वं वाच्यत्वमिति न्यायलक्षणम् । अर्थप्रतीत्यनुकूल पदपदार्थ सम्बन्धव्यापारः शक्तिरिति काव्यप्रकाशे । अर्थप्रतिपादनानुकूल सम्बन्धविशेषः शक्तिरिति नैयायिकाः । शब्दानां मुख्यव्यापारः शक्तिः । व्याप्रियतेऽभिधीयते शब्दरर्थोऽनेनेति । सा चास्माच्छन्दादयमर्थो बोद्धव्य इतीश्वरेच्छा विषयत्वम् । "
दुरूह स्थलों का उद्घाटन और विस्फोरण सारमंजरी में भलीभांति किया गया है । यथा— तत्रोपसर्गस्य वाचकत्वं नास्ति किन्तु द्योतकत्वमेव क्लृप्तशक्तिकधातोरेवार्थविशेषे तात्पर्यग्रहात् । प्रजयतीत्यादी जिधातोरेव जये शक्तिः प्रकृष्टजये लक्षणा तत्र प्रकृष्टजयबोधे प्रोपसर्गस्य तात्पर्यग्राहकत्वमात्रमथवा जिधातोरेव प्रकृष्टजये शक्तिः सा च प्रोपसर्गोपसन्धानेनेव बुध्यते तथा चेयमपिसन्धानिकी शक्तिः अपि च प्रजयतीत्यत्र यदि प्रकृष्टजये धातोर्न शक्तिस्तदा प्रकृष्टजयाश्रयत्वेन बोधो न स्यात् प्रकृतार्थान्वितस्वार्थं बोधकत्वं प्रत्ययानामिति व्युत्पत्तेः श्रवणात् । "
श्रीजयकृष्ण ने विषय की संक्षिप्तता को सुरक्षित रखा है। ये विषय को अत्यल्प शब्दों में प्रस्तुत कर उसे पाणिनीयाष्टाध्यायीवत् सूत्र रूप दे देते हैं । यथा शतृ और शानच् प्रत्ययों के बारे में ग्रंथकार ' शतृशानयोर्वर्तमानत्वमेककत्तृ कत्वमेककालीनत्वञ्च इतना ही कहते हैं, जिसको पाणिनि ने भी 'लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे" इस रूप में कहा है, जिस पर वार्तिककार और महाभाष्यकार ने विस्तार से निरूपण किया है।
ग्रन्थकार की मौलिक मान्यताएं
श्रीजयकृष्ण सारमंजरी के अनुशीलन से ग्रंथकार की अनेक मौलिक मान्यताएं तथा अवधारणाएं सामने आती हैं । उनमें यहां मुख्य-मुख्य अवधारणाओं का परिचय देना उपयुक्त होगा ।
विधिलिङ् लकार
१४०
वैयाकरण परम्परा 'विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु लिङ्" इस पाणिनीय सूत्र को आधार मानकर विधिलिङ् लकार को विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट, सम्प्रश्न और प्रार्थन इन छः अर्थों में मानती हैं। इन छः अर्थों में विधि ( इष्टसाधनत्व अथवा शाब्दीभावना) की प्रमुखता होने के कारण इस लकार को विधिलिङ् कहा जाता है। यहां महाभाष्यप्रदीपकार आचार्य कंप्यट का कहना है कि वस्तुतः
६६
तुलसी प्रशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org