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"कपोत शरीर" उपस्कृत किये हैं उसको मत लाना, लेकिन वासी मार्जार कृत "कुक्कुट मांस" है, उसको ले आना । आचारांग चूलिका (१.१३३.३४) और दशवकालिक (५.७३-७४) में "बहअट्रिय मंसं" प्रयोग है और उसे लेने का निषेध है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० हर्मन जेकोबी ने सन् १८८४ में जब आचारांग का अंग्रेजी अनुवाद किया तो उक्त आचारांग संदर्भ से (बुक-२ लेक्चर-१ लेसन-१० में प्रघट्टकपांच, छह) भिक्षा में मांस-मछली लेने का निषेध किया और मांस-मछली ग्रहण कर लेने पर उसे निमित्त स्थान पर छोड़ने के रूप में अनुदित किया ।
इस प्रकार बौद्धों की तरह, जहां (महापरिनिर्वाण सूत्र और अंगुत्तर निकाय के पंचक निपात में) भगवान बुद्ध द्वारा "सूकरमद्दव" "सूकर मंसं"--- सूअर मांस खाने का उल्लेख है, जैनों द्वारा भी "कुक्कुट मंसं" अथवा "बहुअट्टियं मंस' लाने का उल्लेख है और इस संबंध में अभी तक कोई सटीक प्रत्युत्तर नहीं दिया गया था । संप्रति मुनि श्रीचंद "कमल" ने जैन आगम : वनस्पति कोश का निर्माण कर जैनागमों के संदर्भित प्रसंगों का युक्तियुक्त और सांगोपांग स्पष्टीकरण कर दिया है। उन्होंने आचारांग और दशवकालिक में आये "बहुअट्ठियमंसं" के समकक्ष प्रज्ञापनासूत्र (१.३५) के एगट्ठिया शब्द का संदर्भ सामने रखकर वहां वर्णित ३२ वनस्पतियों के नाम गिनाये हैं जो सभी गुठली वाली हैं। अर्थात् उक्त "बहुअट्ठिय" शब्द वनस्पति विशेष की बहुत सी गुठलियां अथवा बीजों का वाचक है न कि अस्थि अथवा हड्डी का। इसी प्रकार कपोत शरीर मकोय वनस्पति का नाम है जिसके फल कबूतर के अण्डों के समान होते हैं । धन्वन्तरि निघंटु और कैयदेव निघंटु के प्रमाण देकर मुनिश्री ने काकमाची (कपोत शरीर) की व्याख्या की है और चरक संहिता के प्रमाण से लिखा है उसे मधु के साथ मिलाकर खाने से वह तुरन्त मृत्यु का कारण बन जाती है। किंतु औषध के रूप में रक्त पित्त, क्षत, विष, कृमि आदि में लाभप्रद है । कुक्कुटमंस- चोपतिया शाक है जिसके खुप के प्रत्येक पत्र दण्ड पर चार-चार पते स्वस्तिक क्रम में निकलते रहते हैं । यह त्रिदोषघ्न और ज्वरनाशक है।
जैन विश्व भारती में पिछले लगभग पच्चीस वर्षों से जैनागमों पर शोध---- खोज आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य हो रहा है । आगम शब्द कोश, देशी शब्द कोश, एकार्थक कोश और निरूक्त कोश का संपादन-प्रकाशन होकर शोध की इस विधा में अब यह जैन आगमः वनस्पति कोश के मुद्रण से जहां आगमों के संदिग्ध पाठों को असंदिग्ध बनाने में सहायता मिलेगी वहां यह कोश आयुर्वेद तिब्बत, यूनानी और सिद्ध चिकित्सा पद्धतियों के लिए सर्वथा अज्ञात वनस्पतियों का परिचय उपलब्ध करेगा।
मांस परक वनस्पतियों का किंचित वर्णन ऊपर किया जा चुका है, किन्तु जलचर मांस-नारियल फल का गूदा, पखी मंस-बड़े बेर का गूदा, तितिर मंस- मेथी या केर का साग. मिग मंस-कस्तुरी के दाने, मेढ़क मंस-मेंढा सिंगी फल का गूदा, वराहमंस- वाराही कंद (रतालु) का गूदा और वसभ मंस- लहसुन जैसा जमीकंद जो हिमालय पर पैदा होते हैं--- इन वनस्पतियों का गूदा या गिरी प्रयोक्तव्य है और इनसे पशु पक्षी अथवा किसी जानवर के मांस का कोई अभिप्राय नहीं है-यह
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तुलसी प्रचा
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