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के फलक बने हैं । अतः यह मान लिया जाना चाहिए कि इस काल में जैन जगत् २४ तीर्थंकरों के इतिवृत्त से सुपरिचित था किन्तु जैनेतर जगत् में उस समय तक ४ या ५ जैन तीर्थंकर ही मान्य थे। कहायूं (कहोम) से प्राप्त एक संस्कृत लेख इस संबंध में उल्लेख्य है जो उस पर लिखे लेख -'शक्रोपमस्य क्षितिप शतपतेः स्कंद गुप्तस्य शान्ते वर्षे त्रिंशद्दर्शकोत्तरकशततमे ज्येष्ठमासि प्रपन्ने'-के अनुसार गुप्त संवत् १४१ में लिखा गया शिलालेख है । ____ इण्डियन एन्टीक्वेरी (जिल्द १० पृ० १२५-२६) में छपे इस लेख में नांदसा (भीलवाड़ा) यूप लेख कृत संवत् २८२ में उल्लिखित इक्ष्वाकु उपवंश मालव वंश के सेनापति सोगिसोम के वंशजों का वर्णन है। सोगिसोम के पुत्र सोमिल पौत्र भट्टिसोम प्रपौत्र रूद्रसोम उपनाम व्याघ्र के पुत्र भद्र का विवरण देने वाला यह लेख मालव वंश के सत्ताच्युत होने का भी प्रमाण देता है । लेख में भद्र को द्विजगुरु कहा गया है जिसने जैन यतियों के लिए आदि कर्तृन् अर्हतों में पांच इन्द्रों की मूर्तियों से अलंकृत शैलस्तंभ स्थापित किया— 'अर्हतानादिकतन् पंचेन्द्रांस्थापयित्वा धरणिधरमयान् सन्निखातास्ततोऽयम् शैलस्तंभः ।' संभवतः शैल स्तंभ पर उत्कीर्ण पांच आदिकर्ता अर्हत् आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर रहे हों । शैल स्तंभ गांव के बाहर उत्तर में खड़ा है और उस भूरे शिला खंड पर पश्चिम को कायोत्सर्ग मुद्रा में महावीर प्रतिमा है और चौ तरफ चार तीर्थकर हैं।
मथुरा के एक पेनल पर, जो कंकाली टीले की खुदाई में ही मिला है, भी ऊपरी भाग में स्तूप के दोनों ओर दो-दो जिन प्रतिमाएं बनी हैं जो क्रमश: बाएं आदिनाथ-शांतिनाथ और दाहिने पार्श्वनाथ-महावीर दृष्टिगत होती हैं। पेनल पर नीचे 'श्रमणो काह्न' और उसकी पत्नी धनहस्तिन तथा तीन सेवकों का अंकन है। पेनल पर सं० ९५ (४४८ विक्रम पूर्व) का अंकन है । उस समय तक श्वेतांबर-परंपरा में चार ही जिनों की पूजा का परिचय भी इस पेनल से प्रतीत होता है क्योंकि श्रमण काह्न वस्त्रधारी है। वहीं से प्राप्त तीन मूत्तियों का एक चतुस्स्तंभ भी उल्लिखित है, और उस पर सं० १५ (विक्रम पूर्व ५२८) का लेख है । यह चतुस्स्तंभ श्रेष्ठि वेणी की पत्नी और भट्टिसेन की माता कुमारमिता द्वारा प्रदत्त और आचार्य जयभूति की शिष्या संघमिका द्वारा वसुला के कल्याणार्थ प्रतिष्ठापित हुआ बताया गया है।
___ लालगढ़ (बीकानेर) के अनूप संस्कृत ग्रंथालय में सुरक्षित कंचु यल्लायं भट्ट के ज्योतिष दर्पण नामक ग्रन्थ में, जो (शशांक नेत्राष्टमिता: ८२१ शकाब्दा:) शक संवत् ८२१ का लिखा है, भी कालगणना-प्रसंग में लिखा है कि
___कल्यब्दाः रूप रहिता पांडवाब्दाः प्रकीर्तिताः'
___ 'भारताब्दा वसु जिनर्यक्ता स्यु कलिवत्सराः।' अर्थात् कलि संवत् और पाण्डव संवत् में कोई अन्तर नहीं है किन्तु महाभारत युद्ध और कलिवत्सर में वसुजिन:४८ दिन का अन्तर है। यहां जिन: से तात्पर्य २४ होता तो विसंगति होती क्योंकि १८ दिनों के युद्ध के बाद ३० दिन तक प्रदोष (जब पांडवों ने हस्तिनापुर से बाहर रहकर पितृतर्पण किया) शुद्धि करने पर ही महाराजा युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ और पांडवाब्द शुरू कहे जा सकते हैं। खण्ड २३, अंक १
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