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विद्वानों ने अपने 'सेन्स ऑफ ह्य मर' से उसे रसप्रद बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया यह एक विरल घटना थी।
संगोष्ठी के समापन के प्रसंग पर आचार्य श्री शीलचन्द्रसूरिजी ने मार्मिक और संवेदनशील शब्दों में कहा कि
अपन लोग अनेक विवादों को लेकर बैठे हैं, उनसे अभी तक थके नहीं और भाषा के नाम से चली आ रही एकता को नष्ट करने का यह नया विवाद खड़ा किया गया है । यह विवाद किस लिए ? क्या किसी की अस्मिता-गौरव समाप्त करने का हेतु इसके पीछे जुड़ा हुआ है ? किसी का भी यदि ऐसा हेतु होगा तो वह कभी भी सफल नहीं होगा। बात-बात में अनेकान्तवाद की दुहाई देने वाले मित्रों को संबोधन करते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि-बंदूक में से गोली छोड़ने वाले को सभी छूट और फिर बचाव करने वाले के लिए अनेकांत का पालन करना अनिवार्य-ऐसे अनेकांत में हमको विश्वास नहीं है, "मारना भी और न भी मारना" ऐसे 'भी' सिद्धांत को अनेकांत नहीं कहा जा सकता । वहां पर तो 'न ही मारना" ऐसा ही सिद्धांत स्वीकारना ही पड़ता है। परम्परा से दोनों ही संप्रदाय के प्राचीन और आधुनिक विद्वानों ने जो भाषा स्वीकार कर मान्य रखी है उसका विच्छेदन करना और नयी ही काल्पनिक बात की अनेकांत के नाम से पुष्टि करना-यह किसी भी प्रकार से उपयुक्त नहीं है । विशेष तौर पर उन्होंने यह भी कहा कि कितनेक विद्वान-मित्र “नरो वा कुंजरो वा' के सिद्धांत में मानते हैं। इधर आये तो इधर भी 'हां' और उधर जाये तो उधर भी 'हां', । ऐसी पद्धति उन्हें भले ही विद्वान बनाती हो परन्तु वास्तविक रूप में एकेडेमिक व्यक्ति की कोटि में उनकी गिनती नहीं हो सकती। उनकी श्रद्धेयता स्वीकारने योग्य नहीं रहती। ऐसे मित्रों को मेरी सौहार्दपूर्ण सलाह है कि उनको शौरसेनी का पक्ष उचित लगे तो वही पक्ष स्वीकार करना चाहिए परन्तु दुहरी नीति का आश्रय लेने का आग्रह न रखें। ___अंत में अध्यक्षश्री के उपसंहार के साथ संगोष्ठी का समापन सुखद और संवादी वातावरण में पूरा हुआ।
___इस संगोष्ठी के आयोजन में डॉ. के. आर० चन्द्र और डॉ. जितेन्द्र बी. शाह ने महत्त्वपूर्ण भाग अदा किया। दोनों दिन भोजन की व्यवस्था का प्रबंथ श्री वक्तावरमलजी बालर, वंसराजजी भंसाली और नारायणचंदजी मेहता ने किया था और निवासादि का प्रबंध सेठ हठीसिंह केसरीसिंह वाडी के ट्रस्ट ने किया था।
-संगोष्ठी संयोजक
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