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मुनि विमलकुमार
प्राचीन काल मे मंत्र विशेष के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली शक्ति को विद्या कहते थे और साधना के द्वारा उस शक्ति को प्राप्त करने वाले साधक को विद्या सिद्ध ।
मंत्रविद्या और उसके प्रकार
मुनि विमलकुमार ने सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि और वृत्ति तथा व्यवहार भाष्य से ऐसी कतिपय विद्याओं की जानकारी संग्रह की है जो यहां प्रकाशित की जा रही है ।
संपादक
आवश्यक निर्युक्ति में निम्नलिखित आठ व्यक्ति प्रवचन प्रभावक माने गये १. प्रावचनी २. धर्म कथी ३. वादी ४. नैमित्तिक ५ तपस्वी ६० विद्यावान् ७ ८. कवि । १
इनमें एक है विद्यावान् ! विद्या का अर्थ है - मंत्र - विशेष के अनुष्ठान से होने वाली शक्ति । विद्या को साधा जाता है । जो नानाविध विद्याओं से युक्त होता है वह विद्यावान् कहा जाता है । आवश्यक निर्युक्ति में पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें एक है विद्यासिद्ध । जो किसी एक महाविद्या को साध लेता है वह विद्यासिद्ध कहलाता है । '
यथा
सुत्रकृतांग में वर्णित विद्या
सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि तथा वृत्ति में अनेक विद्याओं का वर्णन मिलता है ।
हैं
सिद्ध
१. सुभगाकर २. दुर्भगाकर ३. गर्भाकार ४. मोहनकर ५. आर्थवणी ६. पाकशासनी ७. द्रव्यहोम प वैताली ९. अर्द्धवताली १०. अवस्वापिनी ११.
तालोद्घाटिनी १२. श्वपाकी १३. शाबरी १४. द्राविडी - द्रामिली १५. कालिंगी १६. गौरी १७. गांधारी १८. अवपतनी १९ उत्पतनी २०. जृम्भणी २१. स्तम्भनी २२. श्लेषणी २३. आमयकरणी २४. विशल्यकरणी २५, प्रकामणी २६. अन्तर्धानी २७. कंपनी |
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चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इन विद्याओं में कुछेक के विषय में स्वल्प जानकारी दी है तथा कईयों का नामोल्लेख मात्र किया है । आचार्य महाप्रज्ञ ने 'सूयगडो' टिप्पण भाग - २ (जैन विश्व भारती - संस्करण) में इनका विस्तार से वर्णन किया है । यहां उसे संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है
१. सुभगाकर - जिससे दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदला जा सके वह सुभगाकर विद्या है ।"
२३, अंक १
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