Book Title: Tulsi Prajna 1997 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 162
________________ अपभ्रंश भाषा में लिखा साहित्य नीलम जैन अपभ्रंश साहित्यिक भाषा के गौरवशाली पद पर छठी शताब्दी में आसीन हुई। इससे पूर्व भरत के नाट्यशास्त्र में विमलसूरि के पउमचरिय और पादलिप्तसूरि के तरंगवइकहा में अपभ्रंश के शब्दों का कथंचित् व्यवहार पाया जाता हैं । ऐसा प्रतीत होता हैं कि अपभ्रंश में प्रथमशती से रचनाएं होती रही हैं। किंतु महत्त्वपूर्ण साहित्य ८वीं शती से १३-१४वीं शती तक रचा गया । इसी कारण डा० हरिवंश कोछड़ ने अपभ्रश के ९वीं से १३वीं शती तक के युग को समृद्ध युग एवं डा० राजनारयण पांडेय ने "स्वर्ण युग" माना है।' अपभ्रंश की एक अन्तिम रचना है भगवती दास रचित "मृगांक लेखावस्ति (१६वीं शती)। अपभ्रंश साहित्य की समृद्धि का प्रमुख तोत जैन आचार्यों के द्वारा रची गई कृतियां ही हैं। इसका ज्ञान पिछने दो तीन दशकों में श्री चमनलाल डाह याभाई दलाल, मुनि जिनविजय, प्रो० हीरालाल जैन, डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य, डा० ए० एन० उपाध्याये, म. पा. हरप्रसाद शास्त्री आदि विद्वानों के अथक परिश्रम स्वरूप प्राप्त हुआ। अपभ्रंश भाषा के अध्ययन की समस्या एवं धार्मिक परम्परा के फलस्वरूप इस भाषा का साहित्य जैन भण्डारों में छिपा पड़ा रहा। ___ संभवतः इसी कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में जैन अपभ्रंश साहित्य को उपदेश मात्र मानकर विशेष महत्त्व नहीं दिया। आ० द्विवेदी ने इसका तर्कपूर्ण खण्डन करके इसमें सुन्दर काव्यरूप की उपलब्धि होने से इसे स्वीकार किया है -"जैन अपभ्रंश चरित्र काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है। वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है । स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त, धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य क्षेव से बाहर नहीं चले जाते ।..............."यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का 'रामचरित मानस' भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का 'पद्मावत' भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुसेगा। ___ अपभ्रंश साहित्य की विपुलता का ज्ञान डा० नामवरसिंह के इस कथन से पुष्ट होता है “यदि एक ओर इसमें जैन मुनियों के चिंतन का चितामणि है तो दूसरी ओर बौद्ध सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है। यदि एक और धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोकजीवन से उत्पन्न होने वाले ऐहिक-रस का राग खण्ड २३, अंक १ १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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