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के जीवनकाल से संबंधित दो घटनाएं (१) अरिष्टनेमि के विवाह की तैयारी और (२) पार्श्वनाथ पर तप अवस्था में कमठ द्वारा उपसर्ग-का शिल्पाकन भी पाया जाता है। राजगृह के वैभार पर्वत पर मिली एक प्रतिमा नेमिनाथ की मानी जाती है जो गुप्तकालीन है (ए. सो. इ.रिपोर्ट १९२५-२६) और मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त एक प्रतिमा भी गुप्तकालीन कही जाती है जिसमें वर्धमान की प्रतिमा के बार्डर के रूप में २३ तीर्थंकर अंकित किए गए हैं । उस पर लिखे अस्पष्ट लेख में 'प्रतिमा' शब्द पढ़ा जाता है।
सौभाग्य से कंकाली टीला, मथुरा की खुदाई में एक टूटा हुआ फलक और मिला है जिस पर सं० ७९ वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास की २० वीं तिथि का लेख है। फलक पर जिसे लेख में "पूर्वा" कहा गया है, कोट्टियगण की भइरा शाखा के किसी अपवधहस्ति द्वारा अरहत नंदीव्रत की प्रतिमा का निवर्तन हुआ और उसे किसी श्राविका के कल्याणार्थ देवनिर्मित जैन स्तूप में प्रतिष्ठित किया गया।
यह फलक और उस पर लिखा लेख अत्यधिक महत्त्व का है । १३ वीं सदी में हए जिनप्रभ सूरि ने अपने 'तीर्थकल्प' में उक्त स्तूप को देवनिर्मित कहने के अलावा स्वर्णमंडित बताया है और लिखा है कि धर्मरुचि और धर्मघोष के कहने पर ईटों से बने देवनिर्मित स्तूप के बाहर स्वणिम पत्थरों का मंदिर निर्माण हुआ था। परम्परानुसार निर्माण बाद १३ सौवें वर्ष में बप्पभट्टि सूरि के समय उसका जीर्णोद्धार हुआ। स्तूप का तल गोलाकार है । नीचे केवल गोल चबूतरा है जिस पर ढोल या कुएं की नाल के समान इमारत बनी है और उस पर अर्द्धगोलाकार प्रदक्षिणा पथ, आड़ी पटरियां और चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार बने हैं । दीवालों के भीतर मिट्टी भरी है और बाहर की ओर मूर्तियां जड़ी थीं। ५०० फुट x ३५० फुट के कंकाली टीले की खोदाई सन् १८७१ से १८९० तक हुई थी। उपरोक्त फलक पर उत्कीर्ण संवत् ७९ हमारी पहचान अनुसार देवपुत्र शक संवत् है जो विक्रम पूर्व ५४३ वर्ष में प्रवर्तित हुआ।
इस प्रकार उक्त फलक विक्रमपूर्व ४६४ वर्ष में स्तूप में प्रतिष्ठित किया गया और उस समय उसे 'देव निर्मित' कहे जाने से अनुमान होता है कि वह बहुत प्राचीन हो गया था और लोग उसके निर्माता का नाम भूल गए थे । संभवतः इसी लिए धर्मरुचि और धर्मघोष ने उसके चौ तरफ स्वर्णिम पत्थरों से विशाल मंदिर बनवाया ।' निर्माण के १३०० वर्ष बाद बप्पट्टि के समय उसका जीर्णोद्धार हुआ। यह सूचना भी महत्त्वपूर्ण है । 'प्रभावक चरित्र' के अनुसार बप्पभट्टि ८११ विक्रमी में 'सूरि' पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। तदनुसार उससे १३०० वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रमपूर्व ४८९ में मंदिर का जीर्णोद्धार भी युक्ति संगत है।
२४ तीर्थंकरों की परिकल्पना ऊपर वणित नेमिनाथ और वर्द्धमान प्रतिमाएं मूर्ति विज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर ईसा की ४थीं-५ वीं सदी की मानी गई हैं । इनमें कंकाली टीले से प्राप्त वर्द्धमान प्रतिमा के बोर्डर में ऊपर सीधे ७ और दाएं-बाएं ८, ८ कुल २३ तीर्थंकरों
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तुलसी प्रक्षा
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