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प्राण, मन और इन्द्रियों में एकत्व साधने वाला योग : स्वर योग
मैत्रायण्युपनिषद् ( ६ . २५) का श्लोक प्रसिद्ध है किएकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च । सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते ॥
अर्थात् प्राण, मन और इन्द्रियों का एकत्व और सर्वभाव - परित्याग ही योग है और यह संसार अग्नीषोमात्मक है । अग्नि और सोम में समत्व वायु करती है, इसी - लिये कुछ लोग कहते हैं कि
वायुरेव महाभूत इति केचित्प्रचक्षते । आयुरेव स भूतानामिति मन्यामहे वयम् ।
वायु महाभूत है और हम उसे सब प्राणियों की आयु कह सकते हैं । भगवान् चरक (२८. ३) भी कहते हैं
वायुरायुर्बलं वायुर्वायुवाता शरीरिणाम् । वायुविश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तितः ॥
[ परमेश्वर सोलंकी
अर्थात् वायु ही आयु है, वही बल है और वही मनुष्यों का जीवन है । यह समस्त विश्व भी वायु का ही गोला है जिसमें स्वयं प्रभु समाया हुआ है ।
ब्रह्मज्ञान - निर्वाणतंत्र में भी कहा गया है कि पृथ्वी पानी में समा जाती है, पानी सूर्य द्वारा सोख लिया जाता है और सूर्य वायु में विलीन हो जाता है और फिर वायु अनन्त आकाश में लय हो जाती है । ऐयरेय आरण्यक (२.१.६ ) में अनन्त आकाश को 'प्राण' से भरा हुआ कहा गया है और यह बताया गया है कि एक कोशी जीव-पिपीलिका से बृहत् आकारीय प्राणी - सभी इस एक प्राण तत्त्व से ही उद्भुत और अनुप्राणित हैं ।
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'यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' के अनुसार हर प्राणी के शरीर में भी प्राण समाया हुआ है - सर्व हि+ इदं प्राणेनावृतम् । इसीलिये ऋग्वेद (१०.१८६.१ ) की एक ऋचा में जीवन को सफल बनाने के लिए वायु से भेषज रूप में सूक्ष्मातिसूक्ष्म होकर हृदय को सुख और शांति से भर देने की प्रार्थना की गई है
वात आवतु भेषजं, शंभुभयोभुनोहृदे । आपृषि तारिषत् ॥
प्रण
खण्ड २३, अंक १
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