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वा इति स्वरः । तस्य स्वरस्य उदयः-स्वरोदय हो जाता है ।
स्वरोदय हो जाने पर उत्तमोत्तम और गुह्यातिगुह्य विद्या भी परिज्ञात हो जाती है । स्वरोदय से शत्रुनाश, लक्ष्मी प्राप्ति, मित्र समागम, इच्छित कीति, विवाह, राजदर्शन, भूपति वंश, देवसिद्धि आदि होने लगता है। जैसे दीपक जलने पर भवन प्रकाशित हो जाता है वैसे ही स्वरोदय से सारा शरीर प्रकाशमान रहता है और शरीर पर भद्रा, व्यतिपात और वैधृति दोष नहीं लगते । स्वयमेव जीवन में बुरे योग न होकर इच्छानुसार जय-पराजय, शुभाशुभ, सुख दुःख और सिद्धि असिद्धि होने लगती है।
___ शरीर में स्वरोदय होना अतीव महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उससे ब्रह्माण्ड और घट में तादात्म्य हो जाता है । जैसे सूर्य स्थिर रहता है किन्तु उत्तरायण-दक्षिणायण होता है वैसे ही शरीर में स्वर स्थिर रहते हुए भी नासापुट में उत्तरायण-दक्षिणायण होता है । वह चन्द्रोदयास्त के आधार पर तिथि अनुसार बदलता है । तदनुसार प्रत्येक शुक्ल पक्ष की १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४, १५ और कृष्ण पक्ष की ४, ५, ६, १०, ११, १२ को सूर्योदय पर चन्द्र स्वर तथा कृष्ण पक्ष की १, २, ३, ७, ८, ९, १३, १४, ३० और शुक्ल पक्ष की ४, ५,१६, १०, ११, १२ को दाहिना स्वर सूर्योदय पर शुरू होता है। यह एक प्राकृतिक संस्थिति है और इसके बने रहने पर शरीर का व्यापार सुनियंत्रित रहता है। स्वर रहस्य
शरीर में नाड़ियों का एक बड़ा जाल बिछा हुआ है। ७२ हजार नाड़ियों का यह सुविस्तीर्ण वितान प्राणापान के संचरण से प्रतिपल शरीर में अनुकूल-प्रतिकूल संरचना करता रहता है । यह नाड़ी वितान पायु से दो अंगुल ऊपर और उपस्थ से दो अंगुल नीचे चतुरंगुल विस्तार में एक कन्द जैसे स्थान से उद्भुत है जिसमें से मोटे रूप में २४ नाड़ियां निकलती दीख पड़ती हैं जो भेद-प्रभेद से ७२ हजार हो जाती हैं। शिव संहिता में इनकी संख्या साढ़े तीन लाख बताई गई है।
सार्धलक्षत्रयं नाड्यः सन्ति देहान्तरे नृणाम् ।।
प्रधानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दशः ।। मूलाधार से दस नीचे, दस ऊपर और दो, दो नाड़ी दायें बायें से निकलती हैं जिनमें श्रेष्ठ कर्तारौ प्राणापानौ---कहकर मोटे रूप में प्राण और अपान को गिनते हैं । यह प्राण नाभि-मण्डल से ऊपर और अपान नाभि-मंडल से नीचे एक तरन्नुम अथवा लय में बहते रहते हैं । इस लय को जानकर तदनुकूल आचरण करने से सारे कष्ट मिट जाते हैं। ताण्ड्य ब्राह्मण (१०.४.४) में कहा गया है कि उसे कौन बिन जगा कह सकता है जो दो प्राणों से सदैव जागृत रहता है
'तदाहुः कोऽस्वप्तुमर्हति, यद्वाव प्राणी जागार, तदेव जागरितमिति' इसी बात को किसी कवि ने बहुत सुन्दर रूप में कह दिया है
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः।
अजपा नाम गायत्री जीवो जपति सर्वदा ॥ अर्थात् सोऽहम् का जाप करते हुए जीव निरन्तर गायत्री जपता है। सोऽहम् ही बंड २३, अंक ४
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