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ओ३म् अथवा प्रणव है । इसे एक अन्य श्लोक में इस प्रकार कहा गया हैसकारं च हकारं च लोपयित्वा प्रयोजयेत् । सन्धिं च पूर्वरूपाख्यं ततोऽसौ प्रणवो भवेत् ॥
काण्व संहिता (४०.१६ ) में इसीलिए कहा गया है- योसावसौ पुरूषः सोऽहमस्मि । अथवा यों कहें - तद्योऽहंसोऽसौ योऽसौ सोऽहम् ।
इस प्रकार ओमित्यात्मानं युञ्जीत अथवा ओमित्येवं ध्याययात्मानम् । मुण्डकोपनिषद् कहता है
अकारं पुरुषं विश्वमुकारे प्रविलोपयेत् । उकारं तैजसं सूक्ष्मं मकारे प्रविलोपयेत् । मकारं कारणं प्राज्ञं चिदात्मनि विलोपयेत् ॥
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प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
और राजर्षि मनु की भी व्यवस्था है
इस नाड़ी शुद्धि और योगावस्था प्राप्ति के लिये अनेकों सुगम और दुर्गम उपाय कहे गये हैं । कठिन साधना पूर्ण पद्धति बताई गई है । अनेकों अभ्यास और साधनों द्वारा सतत सचेष्ट रहकर परिचय और निष्पत्ति अवस्थाएं पाने का विधान है। हठयोग से राजयोग तक अनेकों तौर-तरीके अपनाकर अनेकों प्रकार की कठिन साधनाएं करनी पड़ती हैं । सारी प्रक्रिया परम गुप्त कही जाती हैं । उसे बयान करना संभव नहीं । साधु संत और भक्तजन भी इसे कहने सुनने में असमर्थ हैं- जो जाने सो ना कहे और कहे जो जाने नाहि । फिर भी अनहद नाद रूपी इस स्वर रहस्य को जिसने जैसा जाना है उसने अपनी-अपनी प्रतीति को प्रकट किया है । महात्मा सुन्दरदासजी का निम्नपद दृष्टव्य है
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दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथामलाः । तथैन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥
धुन होइ ।
प्रथम भंवर गुंजार शंख ध्वनि दुतिय कहिजै । तृतीय बजई मृदंग चतुरथे ताल सुनिजै । पंचम घंटानाद षष्ठ वीणा सप्तम बजई भेरी नवमे गरज समुद्र की कहै सुन्दर अनहद नाद को दश प्रकार योगी सुनै ॥ हंसोपनिषद् ( १६-२० ) में इसे यों कहा गया है
दुंदहि दोइ ।
अष्टमे दशमे मेघ घोषइ गुनं ।
प्रथमे चिञ्चिणीगात्रं द्वितीये गात्रभञ्जनम् । तृतीये भेदनं याति चतुर्थे कम्पते शिरः । पंचमे स्रवते तालु षष्ठेऽमृत निवेषणम् । सप्तमे गूढविज्ञानं परा वाचा तथाष्टमे । अदृश्यं नवमे देहं दिव्यं चक्षुस्तथाऽमलम् । दशमं च परं ब्रह्म भवेद् ब्रह्मात्म संनिधौ ।
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तुलसी प्रज्ञा
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